(व्यंग्य चित्र - कीर्तीश भट्ट) एक दलबदलू नेता भवसागर को प्राप्त हुए. वे इतने सफल थे कि अमूनन हर सरकार में मंत्री रहे. वे अच्छे खासे लोकप्...
(व्यंग्य चित्र - कीर्तीश भट्ट)
एक दलबदलू नेता भवसागर को प्राप्त हुए. वे इतने सफल थे कि अमूनन हर सरकार में मंत्री रहे. वे अच्छे खासे लोकप्रिय भी थे. इतने, कि पहले तो उनके तमाम समर्थकों ने, राज्य और देश की मासूम जनता ने, प्रारंभ में यह मानने से ही इंकार कर दिया कि वे भवसागर को प्राप्त हो चुके हैं. परंतु जब अस्पताल के प्रमुख चिकित्सक ने लिखित में प्रमाणपत्र जारी कर दिया कि भई, आपके नेता सचमुच नहीं रहे हैं, और कोई दस दिन पहले से नहीं रहे हैं, तब उस प्रमाण पत्र के जारी होने के कोई हफ़्ते भर बाद लोगों को यकीन हुआ. महीने भर प्रांत की जनता गम में डूबी रही. इतनी अधिक डूबी रही कि सार्वजनिक स्थलों पर उनका रोना कूटना, दुःख में अपने आप को चोट पहुँचाकर अपने आप को और दुःखी कर लेने आदि जैसा प्रदर्शन जारी रहा.
एक विकट समस्या और थी कि उन स्वर्गीय लोकप्रिय नेता ने अपने पीछे कोई उत्तराधिकारी नहीं छोड़ा था, लिहाजा उनकी वसीयत के लिए खोजबीन चहुँ ओर भयंकर रूप से चली. उन्होंने दो नंबर की स्थिति पर किसी को भी नहीं चढ़ने दिया. क्या पता कोई दो-नंबरी उन्हें खिसका कर उन्हें बेदखल कर दे. तो किसी ने कहा कि उनकी कुर्सी, जिन पर वे पिछली अर्ध शती से बैठते आ रहे थे, को जांचा परखा जाए, शायद उसमें कोई गुप्त खांचा हो और वहाँ से कुछ मिले. पर, प्रशंसकों ने तो विरासत और स्मरण के नाम पर उस कुर्सी के ऊपर उन नेता की फोटो रखकर उसकी पूजा प्रारंभ कर दी थी, तो उसमें हाथ लगाना असंभव कार्य था.
पर, इधर भारतीय न्यायालयों के लिए असंभव कुछ भी नहीं. न्यायालयों के मार्फत यह सिद्ध हो जाता है कि मृतक की हत्या हुई ही नहीं – या शायद वो मरा ही नहीं. तो, नेता के एक भक्त को अक्ल आई और उसने न्यायालय में अर्जी दाखिल कर दी. मामला उन स्वर्गीय लोकप्रिय नेता से जुड़ा था, जन-भावनाओं से जुड़ा था, तो तुरत फुरत न्याय भी हासिल हो गया और कुर्सी के पुर्जे अलग कर सुराग ढूंढने के आदेश दिए गए. वैसे भी, भारतीय अदालतें अमीर, पहुँच वाले और रसूखदारों को निराश करने का जोखिम नहीं ले सकतीं. लिहाजा यहाँ भी अदालत ने निराश नहीं किया, तो कुर्सी ने भी निराश नहीं किया. कुर्सी के पुर्जे-पुर्जे अलग किए गए तब वहाँ के एक गुप्त खांचे से नेता जी का एक पत्र बरामद हुआ जिसके महत्वपूर्ण अंश कुछ यूँ थे -
“...तमाम उम्र मुझ पर लांछन लगते रहे दलबदलू का. परंतु इन्हें नहीं पता कि एक नेता का दिल कैसा होता है. उसका दिल तो बस कुर्सी के लिए ही समर्पित होता है. उसका दिल वहीं लगा होता है. जहाँ कुर्सी वहाँ नेता. नेता दल बदलता है, परंतु अपना दिल नहीं. तो, जब जब भी जिस भी दल की सरकार रही, मैं सरकार में उसी दल में रहा. मेरा दिल, मेरी भावना, मेरा समर्पण कुर्सी के प्रति शत प्रतिशत रहा. लोगों ने इसका गलत अर्थ निकाला, गलत व्याख्याएँ की. असल व्याख्या, असल अर्थ तो यह है – जिसकी ओर उन निरे मूर्खों का ध्यान नहीं गया - कि मेरा समर्पण, मेरी एक-निष्ठा कुर्सी के प्रति रही, न कि किसी दल विशेष के प्रति.
जो नेता दल विशेष के प्रति समर्पण और निष्ठा की बात करता है, वो दरअसल नेता ही नहीं होता. वो तो दोगला होता है. उसका कहना कुछ और करना कुछ और, और चाहना कुछ और होता है. नेता वही है जो कुर्सी के प्रति समर्पण रखे. दल तो आते जाते रहते हैं, बनते बिगड़ते रहते हैं, टूटते फूटते रहते हैं. इस नश्वर संसार में, हाइड्रोजन-7 के बाद, अगर अति नश्वर कोई चीज है तो वो राजनीतिक दल है, राजनीतिक पार्टी है. ऐसे नश्वर, तुच्छ चीज के साथ निष्ठा बना कर रखने वाला निरा मूर्ख ही होगा. राजनीति में जो चीज शाश्वत है वह सिर्फ एक और एकमात्र है – कुर्सी, पद. और एक नेता की निष्ठा इसी के लिए रहनी चाहिए. वैसे भी, राजनीति में सब नाजायज, जायज है. मेरा दिल, मेरी जान, मेरा शरीर सब कुछ इसी कुर्सी के लिए ही तो था. मैं गर्वित हूँ कि मैं आजीवन सच्चा कुर्सी भक्त रहा. वैसे भी, आज सफल नेता वही है जो कुर्सी के प्रति समर्पित हो. दल के प्रति नहीं. और, जनता के प्रति तो कतई नहीं.
जब भी मुझे लगा कि मेरी कुर्सी हिलने वाली है, उस पर खतरा है, उसकी आबरू उतर सकती है, तो मैंने हमेशा सही एक्शन लिया. हर बार मैंने अपनी कुर्सी की लाज बचाने की खातिर दल बदला. क्या कुर्सी की लाज बचाना गुनाह है?
पत्र के मजमून ने देश भर में भूचाल मचा दिया. अर्णबों और रवीशों ने अपने टीवी शोज़ में हफ़्तों इस पर चर्चाएँ करवाईं. अखबारों ने पन्ने रंगे और फ़ेसबुक-ट्विटर पर अभूतपूर्व स्टेटसों की बाढ़ आई. एक्टिविस्टों के धरना प्रदर्शन हुए. इतनी कि सरकार की कुर्सी हिलने लगी. लिहाजा अध्यादेश के जरिए, पिछली तिथि से दलबदल को न केवल कानूनी मान्यता प्रदान कर दी गई, बल्कि किसी भी नेता के चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक अर्हताओं में न्यूनतम 3 दलबदल को अनिवार्य भी कर दिया गया. और, ये कहने की बात नहीं है कि उन लोकप्रिय नेता को उनके दल-बदल-बदल-कर-ताउम्र देश सेवा के एवज में मृत्योपरांत देश के सर्वोच्च सम्मान से नवाज़ा गया.
अब इस देश में, जाहिर है, कोई नेता दलबदलू नहीं होता है.
COMMENTS