हिंदी में स्थानीयकरण (लोकलाइज़ेशन) की समस्याएँ

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हिंदी में स्थानीयकरण (लोकलाइज़ेशन) की समस्याएँ - रवि रतलामी ( रविशंकर श्रीवास्तव, 101, आदित्य एवेन्यू, एयरपोर्ट रोड, भोपाल मप्र 462030 ...

हिंदी में स्थानीयकरण (लोकलाइज़ेशन) की समस्याएँ
- रवि रतलामी
( रविशंकर श्रीवास्तव, 101, आदित्य एवेन्यू, एयरपोर्ट रोड, भोपाल मप्र 462030 )
हिन्दी कम्प्यूटर की पृष्ठभूमि
मैं पिछले पच्चीसेक वर्ष से हिन्दी साहित्य लेखन से जुड़ा हुआ हूँ हालांकि मैंने कोई धुआँधार नहीं लिखा है, न ही जाने- पहचाने लेखकों की श्रेणी में मेरा नाम है, मगर लेखन की यह यात्रा अमूमन अनवरत जारी है. यह तो सभी को पता है कि किसी भी रचना को प्रिंट मीडिया में प्रकाशित करवाने के लिए आपको पहले अच्छी हस्त- लिपि में लिख कर या टाइप करवा कर भेजना होता है. अब से कोई पच्चीस साल पहले, मैं इस कार्य को आसान बनाने के तरीकों को हमेशा ढूंढता रहता था.
जब मैं अस्सी दशक के उत्तरार्ध में पीसी एटी (33 मेगाहर्त्ज प्रोसेसर, 1 मेगाबाइट मेमोरी, 20 मेगा बाइट हार्ड डिस्क और 1.44 मेगाबाइट फ्लॉपी ड्राइव) पर डास आधारित हिन्दी शब्द संसाधक अक्षर' पर कार्य करने में सक्षम हुआ तो मैंने उस वक्त सोचा था कि यह तो किसी भी हिन्दी लेखक के लिए अंतिम, निर्णायक उपहार है. लिखना, लिखे को संपादित करना और जब चाहे उसकी प्रति छाप कर निकाल लेना - कितना आसान हो गया था.
उसके बाद, थोड़ा उन्नत किस्म का सीडेक का जिस्ट आया, जिसमें भारत की कई भाषाओं में कम्प्यूटर पर काम किया जा सकता था, जिसमें वर्तनी जांच आदि की सुविधाएँ थी. परंतु उसके उपयोग हेतु एक अलग से हार्डवेयर कार्ड लगाना होता था जो बहुत मंहगा था, और मेरे जैसे आम उपयोक्ताओं की पहुँच से बाहर था. शीघ्र ही विंडोज का पदार्पण हुआ और उसके साथ ही विंडोज आधारित तमाम तरह के अनुप्रयोगों में हिन्दी में काम करने के लिए ढेरों शार्टकट्‌स उपलब्ध हो गए और मेरे सहित तमाम लोग प्रसन्नतापूर्वक कम्प्यूटरों में हिन्दी में काम करने लगे.
इसी अवधि में मैंने विंडोज पर हिन्दी में काम करने के लिए उपलब्ध प्राय: सभी प्रकार के औजारों को आजमाया. मैंने मुफ्त उपलब्ध शुषा फ़ॉन्ट को आजमाया, परंतु उसमें हिन्दी के एक अक्षर को लिखने के लिए जरूरत से ज्यादा (दो या तीन) कुंजियाँ दबानी पड़ती हैं. मैंने लीप आजमाया, परंतु हिन्दी की पोर्टेबिलिटी लीप तक ही सीमित थी और विंडोज के दूसरे अनुप्रयोगों में इसके लिखे को काट- चिपका कर उपयोग नहीं हो सकता था. ऊपर से, लीप से लिखे गए दस्तावेजों को अगर आप किसी दूसरे के पास भेजते थे, तो वह तभी उसे पढ़ पाता था, जब उसके पास भी लीप संस्थापित हो. इसी वजह से यह लोकप्रिय नहीं हो पाया. इन्हीं वजहों से मैंने कभी भी श्रीलिपि का भी उपयोग नहीं किया.
कम्प्यूटर पर हिन्दी लेखन के लिए मैं कृतिदेव फ़ॉन्ट पर निर्भर था, जो मूलत: अंग्रेजी आस्की फ़ॉन्ट ही है, परंतु उसका रूप हिन्दी के अक्षरों जैसा बना दिया गया है. कृतिदेव अब भी डीटीपी के लिए, तथा तमाम अन्य हिंदी लेखकों का अत्यंत लोकप्रिय फ़ॉन्ट है, उपयोग में सरल है, आसानी से मिल जाता है, आसानी से इंस्टाल हो जाता है, हिंदी के रेमिंगटन कीबोर्ड से मिलता जुलता है, इसी लिए बहुत से हिंदी के लेखक यूनिकोड हिंदी के आ जाने के दशक बाद भी इसी फ़ॉन्ट का उपयोग करते हैं. परंतु अन्य दस्तावेजों में इस फ़ॉन्ट का उपयोग बेहद सीमित है.
अब तो समय इंटरनेट पर हिंदी के साम्राज्य के फैलाव का है और हर कोई छोटा बड़ा आदमी और संगठन इंटरनेट पर हिंदी में अपनी उपस्थिति दर्ज
कराने में लगा हुआ है. और इसके लिए यूनिकोड फ़ॉन्ट पर आना ही होगा.
हिंदी इंटरनेट के शुरुआती दिनों की बात करें तो हिन्दी अखबार नई दुनिया ने अपने अखबार को इंटरनेट पर लाकर इसकी शुरूआत कर दी थी, परंतु उनका फ़ॉन्ट वेबदुनिया था, जो कंप्यूटर पर इंस्टाल किए बगैर काम नहीं करता था. धीरे से प्राय: सभी मुख्य हिन्दी अखबार इंटरनेट पर उतर आए. परंतु वेब दुनिया की तरह इन अखबारों में उपयोग किए जा रहे फ़ॉन्ट अलग- अलग व एक दूसरे से भिन्न होते थे. एक अखबार का लिखा उसी अखबार के फ़ॉन्ट से ही पढ़ा जा सकता था. इस बीच, अपेक्षाकृत नई तकनीक के डायनॉमिक फ़ॉन्ट – ऐसे फ़ॉन्ट जो इंटरनेट पृष्ठ पर ब्राउज करने पर स्वयं इंस्टाल हो जाते हैं, से कुछ समस्याओं को दूर करने की कोशिशें की गईं, मगर वे सिर्फ एक ही ब्राउज़र, इंटरनेट एक्सप्लोरर तक सीमित रहीं. अन्य ब्राउजरों में यह काम नहीं आया. इससे परिस्थितियाँ पेचीदा होती गईं, चूँकि एक आम कम्प्यूटर उपयोक्ता से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह किसी खास साइट को पढ़ने के लिए खास तरह के फॉन्ट को पहले डाउनलोड करे फिर संस्थापित भी करे, या किसी खास ब्राउज़र को ही इस्तेमाल करे.
मुझ समेत बहुत से लेखकों हिंदी इंटरनेट के शुरूआती दौर में अपनी रचनाएँ पीडीएफ तथा चित्र (जेपीईजी या पीएनजी इमेज) रूप में प्रकाशित की ताकि पाठकों को फ़ॉन्ट की समस्या से मुक्ति मिले. परंतु इसमें भी झमेला यह था कि जब तक उपयोक्ता के कम्प्यूटर पर एक्रोबेट रीडर ( या पीडीएफ प्रदर्शक) संस्थापित नहीं हो, वह इसे भी नहीं पढ़ पाता था. या चित्र डाउनलोड कर ही पढ़ पाता था. ऊपर से पीडीएफ फाइलें व चित्र फ़ाइलें बहुत बड़ी होती हैं, और इन्हें पढ़ने के लिए पहले इसे कम्प्यूटर पर डाउनलोड करना होता है. अत' इंटरनेट पर समय अधिक लगता है.
यह समस्या केवल उपयोगकर्ताओं की नहीं थी, बल्कि सामग्री प्रदाता सेवाओं की भी थी, और दुनिया की तमाम अन्य भाषाओं के साथ भी थी. इन्हीं समस्याओं को हल करने के लिए यूनिकोड नामक प्रकल्प का गठन किया गया ताकि इंटरनेट की सामग्री को भाषाई फ़ॉन्ट की समस्या से छुटकारा मिल सके.
जल्द ही सन 2000 के आते आते तमाम ओर यूनिकोड का समर्थन आने लगा. अब जब इंटरनेट व कंप्यूटर पर हिंदी (तथा अन्य तमाम भाषा) भाषा के प्रदर्शन व फ़ॉन्ट पर निर्भरता यूनिकोड के आ जाने से दूर हो गई तो यह प्रयास किए जाने लगे कि यूनिकोड में हिंदी में कंप्यूटर भी हो.
इससे पहले सीडैक के पहल से भारतीय भाषाओं में कंप्यूटर लाने का प्रयास इंडिक्स कंप्यूटिंग के नाम से एक अच्छी शुरूआत की गई थी जो कि इस्की फ़ॉन्ट पर निर्भर था, परंतु इस्की फ़ॉन्ट के प्रचलन में नहीं होने व गलत नीतियों के फलस्वरूप यह योजना अकाल मृत्यु को प्राप्त हो गई.
उस समय मुफ़्त व मुक्त स्रोत का लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम लोकप्रिय हो रहा था जिसमें प्रारंभ से ही अपनी भाषा में अनुवाद (स्थानीयकरण या लोकलाइज़ेशन) की सुविधा थी, और उसमें यूनिकोड का समर्थन था. परंतु हिंदी यूनिकोड के लिए जटिल समस्याएं, यथा उचित फॉन्ट रेंडरिंग इत्यादि से भी जूझना पड़ रहा था.
हम लोगों ने एक संस्था इंडलिनक्स बनाया और उसके तहत कंप्यूटरों को भारतीय भाषा में लाने का स्वयंसेवी प्रयास करने लगे. तब मैं विद्युत विभाग में इंजीनियर था और अपने खाली समय में अनुवाद का कार्य करता और इस प्रकार प्रत्येक माह लगभग एक हजार वाक्याँशों का अनुवाद कर रहा था. उस समय तक मैं हिन्दी में कृतिदेव फॉन्ट का अभ्यस्त हो चुका था, और मजे की बात यह कि लोकलाइजेशन या स्थानीयकरण के लिए कृतिदेव फ़ॉन्ट काम नहीं आता था. इसके लिए यूनिकोड फ़ॉन्ट में काम करना होता था, जिसका कुंजीपट सीडैक ने डिजाइन किया था जो इनस्किप्ट कुंजी पट कहलाता था जो आज भी कंप्यूटरों में डिफ़ॉल्ट इंस्टाल होता है. यह भी एक तरह का मजाक था, क्योंकि उस वक्त हिंदी टाइपिंग आदि में रेमिंगटन (यानी कृतिदेव फ़ॉन्ट वाला हिंदी कीबोर्ड) कीबोर्ड ही मानक था, तमाम लोग उसी के अभ्यस्त थे, टाइपिंग की परीक्षाएँ उसी में होती थीं, पुराने तमाम हिंदी के वर्डप्रोसेसर इसी रेमिंगटन में चलते थे. मगर जब यूनिकोड आया तो गलत फैसले से सीडैक का इनस्क्रिप्ट अपनाया गया जिससे यूनिकोड में हिंदी सामग्री रचने की समस्या विकराल हो गई. और यह विकरालता इसलिए भी बड़ी रही क्योंकि भारत में कहीं भी हिंदी का भौतिक कीबोर्ड उपलब्ध ही नहीं है. जो लोग रेमिंगटन के अभ्यस्त हो चुके थे, जैसे कि मैं, उन्हें इसे भूलकर नया कुंजीपट इनस्क्रिप्ट सीखना पड़ा – मजबूरी में.
कृतिदेव के कुंजी पट से बिलकुल अलग था इनस्क्रिप्ट कुंजीपट. उस वक्त हिन्दी कुंजीपट को मैप कर बदलने के औजार भी नहीं थे. अतः यूनिकोड में हिन्दी अनुवादों के लिए मुझे एक नए हिन्दी कुंजीपट - इनस्किप्ट को शून्य से सीखना पड़ा, जो कि कृतिदेव से पूरी तरह भिन्न था, और जिसे मैं इस्तेमाल करता था. छः महीने तो मुझे अपने दिमाग से कृतिदेव हिन्दी को निकालने में लगे और लगभग इतना ही समय इनस्किप्ट हिन्दी में महारत हासिल करने में लग गए. कुंजी पट की समस्या अभी भी है – अधिकांश हिंदी सामग्री अभी भी कृतिदेव, चाणक्य आदि फ़ॉन्टों में सृजित होती है और नेट पर प्रकाशित करने के लिए उपलब्ध फ़ॉन्ट कन्वर्टरों का सहारा लेना होता है.
मानक टर्मिनलॉजी की समस्या
हिंदी स्थानीयकरण के शुरूआती चरणों में हमारे पास कोई हिन्दी आईटी टर्मिनलॉजी नहीं थी. ऑनलाइन / पीसी आधारित शब्दकोश भी नहीं थे, जिसके कारण हमारा कार्य अत्यधिक उबाऊ, थका देने वाला हुआ करता था.
अनुवादों में संगतता की समस्याएँ थीं. उदाहरण के लिए, अंग्रेजी के Save शब्द के लिए संचित करें, सुरक्षित करें, बचाएँ, सहेजें इत्यादि का उपयोग अलग- अलग अनुवादकों ने अपने हिसाब से कर रखे थे. फाइल के लिए फाईल, सूचिका, संचिका और कहीं कहीं तो, संदर्भ न मालूम होने से ‘रेती’ का उपयोग किया गया था. इस दौरान हिन्दी भाषा के प्रति लगाव रखने वाले लोग इंडलिनक्स में बड़े उत्साह से स्वयंसेवी अनुवादकों के रूप में आते, दर्जन दो दर्जन वाक्यों- वाक्याँशों का अनुवाद करते, अपने किए गए कार्य का हल्ला मचाते और जब उन्हें पता चलता कि अनुवाद - असीमित, उबाऊ, थकाऊ, ग्लैमरविहीन, मुद्राहीन, थैंकलेस कार्य है, तो वे उसी तेजी से गायब हो जाते जिस तेजी और उत्साह से वे आते थे. कुल मिलाकर
हिन्दी ऑपरेटिंग सिस्टम का सपना साकार करने के लिए मेरे अलावा जी. करूणाकर ही लगातार और निष्ठापूर्वक कार्य कर रहे थे. हमारे हाथों में मात्र कुछ हजार वाक्यांशों के अनुवाद थे, जिस वजह से हम किसी को हिन्दी में ऑपरेटिंग सिस्टम कार्य करता हुआ नहीं दिखा सकते थे. फिर, जो माल हमारे
पास था, वह बहुत ही कच्चा था, निहायत असुंदर था और काम के लायक नहीं था. इंडलिनक्स कछुए की रफ्‌तार से चल रहा था, सिर्फ एक व्यक्ति- जी. करुणाकर के समर्पित कार्यों से जो तकनीकी पहलुओं को तो देख ही रहे थे, मेरे जैसे स्वयंसेवी अनुवादकों को ( हिन्दी के इतर अन्य भारतीय भाषाओं के
भी) अनुवाद कार्य के लिए आवश्यक तकनीक सिखाने- पड़ाने का कार्य भी करते थे और इस बीच समय मिलने पर अनुवाद कार्य भी करते थे.
अंतत: पहिया घूम ही गया:
सन् 2003 में इंडलिनक्स की गतिविधियों में कुछ तेजी आई. इसी दौरान मैंने अपनी नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली और इंटरनेट व कंप्यूटरों के स्थानीयकरण व सामग्री सृजन को पूर्णकालिक कार्य के रूप में अपना लिया. जल्द ही हमारे प्रयासों से लिनक्स का हिंदी में कंप्यूटर ऑपरेटिंग सिस्टम जारी हुआ जिसे लोगों ने हाथों हाथ लिया. और चहुँ ओर इसकी चर्चा और प्रतिक्रिया रही. लोगों ने इसे अपने मौजूदा अंग्रेजी लिनक्स के ऊपर संस्थापित कर पहली मर्तबा हिन्दी में ऑपरेटिंग सिस्टम के माहौल को घोर आश्चर्य से देखा. इंडलिनक्स के प्रयासों की हर तरफ सराहना तो हो ही रही थी, अब लोगों ने इसकी तरफ ध्यान देना भी श्]रू किया. इस दौरान, सीएसडीएस सराय के रविकान्त ने एक
महत्वपूर्ण योगदान हिन्दी लिनक्स को दिया. उन्होंने सराय, दिल्ली में एक हिन्दी लिनक्स वर्कशॉप का आयोजन किया जिसमें साहित्य, संस्कृति और मीडिया कर्मी सभी ने मिल बैठ कर हिन्दी अनुवाद में अशुद्धियों को दूर करने का गंभीर प्रयास किया, जिसके नतीजे बहुत ही अच्छे रहे. बाद में सराय से ही हिन्दी अनुवादों के लिए कई परियोजनाएँ भी स्वीकृत की गईं जिसके फलस्वरूप हिंदी कंप्यूटिंग का कार्य और तेजी से बढ़ा.
हिंदी में स्थानीयकरण की असली समस्या
हिंदी अब चहुँओर स्थापित हो गई है. आमतौर पर फ़ॉन्ट की समस्या भी सुलझ गई है और यूनिकोड मानक फ़ॉन्ट के रूप में स्वीकार्य हो गया है. भारत का हिंदी का विशाल बाजार भी बाजार के बड़े बड़े खिलाड़ियों जिनमें गूगल, एप्पल व फ़ेसबुक शामिल हैं उन्हें खींच रहा है और उनके तमाम उत्पाद हिंदी में आ रहे हैं. मगर असली समस्या अब आ रही है. बाजार के सभी खिलाड़ी अपने अपने हिसाब से स्थानीयकरण करवा रहे हैं. एप्पल व विंडोज का प्रमुख कार्य वेब दुनिया का अनुवाद प्रकल्प करता है. गूगल का अनुवाद बहुत से फ्रीलांसरों के जरिए किया जाता है, इसी तरह फ़ेसबुक के अपने वेंडर हैं. रेडहेट ने रेडहेट लिनक्स को भारतीय भाषाओं में लाने के लिए एक सक्षम व वृहद भाषाई टीम पुणे में बनाया था, परंतु भाषाई कंप्यूटिंग में जब उसे कोई आर्थिक लाभ हासिल नहीं हुआ तो वह टीम बंद कर दी गई. इन सब वजहों से स्थानीयकरण के अनुवादों में मानकीकरण कहीं है ही नहीं. आपके लिए एक उदाहरण काफी होगा –
आजकल हर व्यक्ति के हाथ में एक अदद स्मार्टफ़ोन होता है. आजकल के प्रायः सभी स्मार्टफ़ोनों में न केवल हिंदी में काम किए जा सकते हैं, बल्कि उनके यूआई (यूजर इंटरफ़ेस) भी हिंदी में आ चुके हैं. विंडोज, एप्पल तथा बेहद लोकप्रिय एंड्रायड तंत्र के स्मार्टफ़ोनों में भाषाई विकल्प चुनकर फ़ोन की मूल व प्रदर्शन की भाषा हिंदी में की जा सकती है.
जब आप अपने स्मास्टफ़ोन की भाषा हिंदी में बदल लेंगे तो सबसे पहले सेटिंग में जाते हैं. सही? या फिर, सेटिंग्स में जाते हैं? या कि सेटिंग्ज़ में?
यह निर्भर करता है कि आपके हाथ में कौन सी कंपनी का स्मार्टफ़ोन है. विंडोज वाले सेटिंग्स कहते हैं, एप्पल वाले सेटिंग्ज़ और एंड्रायड में सेटिंग चलता है. सही क्या है? मानक क्या है? मानक कौन तय करेगा? यदि सेटिंग को लेकर इतने सेटिंग्ज़ चलते रहे, तो अपने उपकरणों में हिंदी कौन इस्तेमाल करेगा? करेगा भी तो कन्फ़्यूज होता रहेगा.
यदि आपको विश्वास न हो रहा हो तो नीचे स्क्रीनशॉट पर नजर मार लें –
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ऊपर – विंडोज़ फ़ोन में सेटिंग्स
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ऊपर – एप्पल आई फ़ोन में सेटिंग्ज़
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ऊपर एंड्रायड फ़ोन में सेटिंग
यह तो केवल एक सेटिंग की बात थी, बहुत से ऐसे ही टर्मिनलॉजी में घोर होचपोच है. एक्सेसिबिलिटी को कोई सरल उपयोग कहता है तो कोई सहायक सेवाएँ तो कोई उपलब्धता! बताइए, हिंदी वाला कैसे समझेगा कि भाई, तू बोल क्या रहा है और तेरा असली मतलब क्या है!
हिंदी की अपनी, भारी समस्या
हिंदी भाषा की अपनी स्वयं की समस्या भी है. उदाहरण के लिए, एक स्थान है Orlando. हिंदी में आप इसे कैसे लिखेंगे? पहले, आपके लिए एक चित्र. वास्तविक, रीयलटाइम ऑनलाइन अनुवाद उपकरण का स्क्रीनशॉट है यह –
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किसका लिखा सही है और किसका गलत? माना, आपने ऊपर दिए में से कोई एक चुन लिया, मगर नीचे कोई छप्पन और तरीके से ऑरलैंडो, ओह – ओरलेंडो या फिर ओरलांडो को लिखा गया है – तो उसमें से किसे चुनेंगे?
आर्लैंडो
ऑर्लैंडो
और्लैंडो
ओर्लैंडो
आरलैंडो
ऑरलैंडो
औरलैंडो
ओरलैंडो
आरलैण्डो
ऑरलैण्डो
औरलैण्डो
ओरलैण्डो
आरलैन्डो
ऑरलैन्डो
औरलैन्डो
ओरलैन्डो
आर्लेंडो
ऑर्लेंडो
और्लेंडो
ओर्लेंडो
आरलेंडो
ऑरलेंडो
औरलेंडो
ओरलेंडो
आरलेण्डो
ऑरलेण्डो
औरलेण्डो
ओरलेण्डो
आरलेन्डो
ऑरलेन्डो
औरलेन्डो
ओरलेन्डो
आर्लांडो
ऑर्लांडो
और्लांडो
ओर्लांडो
आरलांडो
ऑरलांडो
औरलांडो
ओरलांडो
आरलाण्डो
ऑरलाण्डो
औरलाण्डो
ओरलाण्डो
आरलान्डो
ऑरलान्डो
औरलान्डो
ओरलान्डो
यदि मानकीकरण हो, तो ऐसी समस्याओं से आसानी से निपटा जा सकता है. स्थानीयकरण में गुणवत्ता और मानकीकरण को बढ़ावा देने और उसे चहुंओर विस्तार देने के उद्देश्य से एक प्रकल्प फ़्यूल (FUEL - Frequently Used Entries in Localization ) बनाया गया है (अधिक जानकारी के लिए - http://raviratlami.blogspot.in/2014/11/2014.html पर जाएँ) जिसमें स्थानीयकरण में जरूरी शब्दों को संग्रहित कर उनका मानक अनुवाद वैबसाइट पर प्रदर्शित किया गया है जिसे हर वेंडर यदि अपनाए तो ऐसी समस्याएं नहीं होंगी, कंप्यूटरों में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ेगी और जनता अपने कंप्यूटिंग और मोबाइल कंप्यूटिंग उपकरणों में शान से, और बिना किसी कनफ़्यूजन के, हिंदी का उपयोग किया करेगी.
लेखक का संक्षिप्त परिचय –
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कर्मकुण्डली (बायोडेटा)
नाम – रविशंकर श्रीवास्तव
उपनाम – रवि रतलामी
जन्म तिथि – 5 अगस्त 1958
शिक्षा – अभियांत्रिकी में स्नातक
पदनाम – अतिरिक्त कार्यपालन अभियंता, मप्रविमं, (स्वैच्छिक सेवानिवृत्त)
पता – 101, आदित्य एवेन्यू, एयरपोर्ट रोड, द्रोणांचल के सामने, भोपाल मप्र 462030
ईमेल – raviratlami@gmail.com


कार्यपथ –
1. विगत 20 वर्षों से हिंदी में तकनीकी/साहित्य लेखन व संपादन तथा कंप्यूटरों, आईटी के हिंदी व छत्तीसगढ़ी भाषा में स्थानीयकरण में सक्रिय भूमिका.
2. शासकीय विद्युत मंडल में 20+ वर्ष से अधिक का प्रसाशकीय/प्रबंधन/तकनीकी अनुभव (भाषाई कंप्यूटिंग के क्षेत्र में कार्य करने हेतु 2003 में स्वैच्छिक सेवानिवृत्त).
3. नई दिल्ली से प्रकाशित इलेक्ट्रॉनिक फ़ॉर यू समूह की पत्रिका – लिनक्स फ़ॉर यू में 8+ वर्ष के लिए तकनीकी लेखन.
4. हिन्दी दैनिक चेतना, हिन्दुस्तान टाइम्स, कादम्बिनी, अहा! जिंदगी, भास्कर, नई दुनिया, प्रभासाक्षी.कॉम, अभिव्यक्ति.कॉम आदि प्रमुख व प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में तकनीकी स्तंभ व साहित्य लेखन.
5. प्रतिष्ठित ग्लोबल वाइसेज इंडिया में हिंदी अनुवाद कार्य. लिंक - http://hi.globalvoicesonline.org/author/ravishankar/ , इंटरनेट का मानकीकरण करने वाली साइट W3C का हिंदी अनुवाद. लिंक - http://www.webstyles.in , ट्विटर को आरंभिक हिंदी रूप देने में प्रमुख भूमिका.
6. सीएसडीएस दिल्ली, हिंदी व छत्तीसगढ़ी कंप्यूटिंग के स्थानीयकरण हेतु 3 फ़ैलोशिप प्राप्त.
7. माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापन कार्य.
8. 20+ सम्मेलनों, ऑनलाइन सम्मेलनों, कार्यशालाओं में हिंदी कंप्यूटिंग, ब्लॉग, हिंदी इंटरनेट संबंधी प्रस्तुतिकरण.
9. हिंदी लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम के प्रारंभिक रिलीज में महत्वपूर्ण भूमिका. 1000+ कंप्यूटिंग अनुप्रयोगों का हिंदी में स्थानीयकरण. अधिकतर कार्य GNU GPL के तहत, निःशुल्क, मानसेवी आधार पर.
10. छत्तीसगढ़ी लिनक्स तथा छत्तीसगढ़ी विंडोज एप्लीकेशन सूट निर्माण में प्रमुख भूमिका.
11. 10+ वर्षों से नियमित रूप से हिंदी में तकनीकी/हास्य-व्यंग्य ब्लॉग लेखन, ऑनलाइन पत्रिका रचनाकार.ऑर्ग का संपादन तथा हिंदी की सर्वाधिक समृद्ध ऑनलाइन वर्गपहेली का सृजन.
पुस्तकें –
1. रवि रतलामी के व्यंग्य
2. रवि रतलामी के ग़ज़ल और व्यंज़ल
3. लिनक्स पॉकेट गाइड हिंदी में
4. आसपास की कहानियाँ (हिंदी में सह-अनुवाद)
पुरस्कार
1. रवि रतलामी का हिंदी ब्लॉग (वर्तमान नाम छींटे और बौछारें) – माइक्रोसॉफ़्ट भाषा इंडिया सर्वश्रेष्ठ हिंदी ब्लॉग 2006
2. 2007-9 माइक्रोसॉफ़्ट मोस्ट वेल्यूएबल प्रोफ़ेशनल
3. अभिव्यक्ति.ऑर्ग टेक्नोलॉजी लेखक 2007
4. छत्तीसगढ़ी गौरव सम्मान 2008 – सृजन सम्मान रायपुर छत्तीसगढ़
5. FOSS IN 2008 – Nrcfoss (नेशनल रिसोर्स कौंसिल फ़ॉर फ्री ओपन सोर्स सॉफ़्टवेयर) प्रायोजित राष्ट्रीय पुरस्कार (KDE हिंदी अनुवाद हेतु)
6. आई टी मंथन 2009 (छत्तीसगढ़ी लिनक्स हेतु)
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This blog post is inspired by the blogging marathon hosted on IndiBlogger for the launch of the #Fantastico Zica from Tata Motors. You can apply for a test drive of the hatchback Zica today.
































































































































COMMENTS

BLOGGER: 4
  1. एक विस्तृत इतिहास पढ़कर बहुत अच्छा लगा, पिछले ७ वर्षों से हम भी सहभागी है। समस्यायें सुलझेंगी, आप सबका प्रयत्न सफल होगा।

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  2. आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन बदल रहे हैं लोकतंत्र के मायने - ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

    जवाब देंहटाएं
  3. महोदय। लेख से स्थआनीयकरण की अवधारणा समझ आई लेकिन समस्यआ हल कैसे निकाल पाएँगे।।

    जवाब देंहटाएं
  4. महोदय। लेख से स्थआनीयकरण की अवधारणा समझ आई लेकिन समस्यआ हल कैसे निकाल पाएँगे।।

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