112 आसपास बिखरी हुई शानदार कहानियाँ - Stories from here and there -

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  आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ संकलन – सुनील हांडा अनुवाद – परितोष मालवीय व रवि-रतलामी 461 सही नाप एक मजिस्ट्रेट ने दर्ज...

 

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आसपास की बिखरी हुई शानदार कहानियाँ

संकलन – सुनील हांडा

अनुवाद – परितोष मालवीयरवि-रतलामी

461

सही नाप

एक मजिस्ट्रेट ने दर्जी से उनकी नाप का सूट सिलने को कहा।

दर्जी ने निवेदन किया - "महोदय, पहले तो आप मुझे यह बतायें कि आप किसी स्तर के अधिकारी हैं? आप हाल ही में अधिकारी बने हैं, या आप नए पद पर नियुक्त हुए हैं या काफी समय से अधिकारी हैं?"

असमंजस में पड़े मजिस्ट्रेट ने दर्जी से पूछा - "इस बात का सूट की सिलाई से क्या लेना-देना है?"

दर्जी ने उत्तर दिया - "सूट की सिलाई का इससे सीधा संबंध है। यदि आप नए - नए अधिकारी बने हैं तो आपको ज्यादातर समय कोर्ट में खड़ा रहना पड़ेगा। इस स्थिति में आपके सूट का अगला और पिछला भाग एक समान रखना होगा। यदि आप नए पद पर पदोन्नत हुए हैं तो आपके सूट का अगला हिस्सा लंबा एवं पिछला हिस्सा छोटा करना होगा क्योंकि पदोन्नत अधिकारी का सिर गर्व से ऊंचा और सीना फूला होता है। यदि आप काफी लंबे समय से अधिकारी हैं तो आपको प्रायः उच्च अधिकारियों से डाँट - फटकार खाने एवं उनके समक्ष घुटने टेकने की आदत होगी। ऐसी स्थिति में आपके सूट का अगला हिस्सा छोटा और पिछला हिस्सा लंबा रखना होगा। यदि मुझे आपके स्तर का सही-सही जानकारी नहीं होगी तो सही नाप का सूट कैसे बना सकूंगा?"

462

अहिंसा की शक्ति

महात्मा गांधी अहिंसा संस्थान के संस्थापक एवं महात्मा गांधी के पोते डॉ. अरुण गांधी ने पोर्ट रीको विश्वविद्यालय में 9 जून को व्याख्यान देते हुए निम्नलिखित घटना का उल्लेख किया -

मैं उस समय 16 साल का था एवं अपने माता-पिता के साथ दादा द्वारा डरबन, दक्षिण अफ्रीका में स्थापित संस्थान में रहता था। हमारा निवास डरबन शहर से 18 मील दूर गन्ने के खेतों के बीचोंबीच था। हमारे घर के आस-पास कोई पड़ोसी नहीं था। इसलिए मैं और मेरी दोनों बहिनें हमेशा शहर जाने, मित्रों से मिलने और फिल्म देखने की फिराक में रहते।

एक दिन मेरे पिता ने मुझसे कार चलाकर शहर चलने को कहा। वहां उन्हें एक सम्मेलन में भाग लेना था। शहर जाने के नाम पर मैं बहुत रोमांचित था। चूंकि मैं शहर जा ही रहा था इसलिए मां ने मुझे रोजमर्रा के सामानों की एक लंबी सूची पकड़ा दी। पिताजी ने भी दिन भर में सारे बचे हुए कामों को निपटाने को कहा, जिसमें कार की सर्विस कराना भी एक था।

सुबह मैंने अपने पिताजी को सही समय पर सम्मेलन स्थल पर छोड़ दिया। वे बोले -"शाम को ठीक पांच बजे मिलेंगे और साथ-साथ घर चलेंगे।"

मैंने जल्दी-जल्दी सारे काम निपटाये और नजदीक ही स्थित एक सिनेमाघर पहुंच गया। जॉन बायने की डबलरोल वाली उस फिल्म को देखने में मैं इतना मगन हो गया कि शाम के 05.30 बज गए। मैं भागता हुआ कार गैरेज पहुंचा और कार लेकर पिताजी के पास पहुंचा। तब तक शाम के 06 बज चुके थे।

पिता जी ने चिंतित स्वर में पूछा - "तुम्हें इतनी देर कैसे हो गयी?"

मुझे यह बताने में बहुत शर्म आयी कि मैं फिल्म में इतना मगन हो गया था कि समय का ध्यान ही नहीं रहा। मैंने झूठ बोलते हुए कहा - "कार की सर्विस समय पर नहीं हो पायी थी इसलिए मुझे इंतजार करना पड़ा।" मुझे यह पता नहीं था कि पिताजी पहले ही गैरेज में जाकर पूछताछ कर चुके थे। मेरा झूठ पकड़ने के बाद उन्होंने मुझसे कहा - "मुझसे तुम्हारे लालन-पालन में जरूर ऐसी कोई गलती हो गयी होगी कि तुम्हें मुझसे सत्य बोलने का साहस नहीं है। यह पता लगाने के लिए कि मुझसे कहां गलती हो गयी, मैं घर तक 18 मील पैदल चलकर जाऊंगा।"

सूट और जूते पहने हुए पिताजी अंधेरे रास्ते में पैदल ही चल दिए।

मैं उनको छोड़ नहीं सकता था इसलिए साढ़े पांच घंटे तक मैं कार से उनके पीछे-पीछे चलता रहा। मुझे उनका कष्ट देखकर दुःख हो रहा था कि मेरे एक जरा से झूठ के कारण उन्हें कष्ट उठना पड़ रहा है। मैंने उसी दिन प्रतिज्ञा कर ली कि फिर कभी झूठ नहीं बोलूंगा। मैं अब भी प्रायः उस घटना के बारे में सोचता हूं और आश्चर्य करता हूं कि यदि उन्होंने मुझे उस तरह से दंड दिया होता जैसे आजकल के माता-पिता देते हैं, तो मुझे ऐसा सबक कभी नहीं मिलता। मैं दंडित होता और सबकुछ भूलकर फिर गलती करता। लेकिन अहिंसा इस एक ही सबक ने मुझपर इतना गहरा प्रभाव डाला जैसे यह कल ही की बात हो। यही अहिंसा की शक्ति है।

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224

कैप्टन और मेजर

एक युवा कैप्टन गलती से कुएं में गिर गया. सिपाहियों ने जब यह देखा तो वे दौड़े और तत्काल कुएं में रस्सी फेंकी और कैप्टन को कुएं से बाहर खींचने लगे. पर जैसे ही कैप्टन कुएं के मुहाने पर पहुँचे, सिपाहियों ने आदतन और दी गई ट्रेनिंग के हिसाब से सावधान होकर कैप्टन को सलाम ठोंका.

नतीजा यह हुआ कि सिपाहियों के हाथ से रस्सी छूट गई और कैप्टन वापस नीचे.

इस भाग दौड़ में यूनिट का मेजर भी वहाँ पहुंच चुका था. यह नजारा देख कर उसने सिपाहियों को पीछे किया और खुद रस्सी थामी और बड़ी मेहनत से कैप्टन को ऊपर खींचा.

मुहाने पर पहुंचते ही कैप्टन ने देखा कि उसका मेजर वहाँ है. उसने आदतन सैल्यूट ठोंका. और उसके हाथ से रस्सी छूट गई और वो वापस कुएं में जा गिरा.

प्रोटोकॉल व्यवस्था के लिए बनाए जाते हैं. परंतु इसका अतिरेक व्यवस्था को खा जाती है

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225

थोड़ा तो ठहर जाओ!

वैज्ञानिक रदरफ़ोर्ड ने ध्यान दिया कि उनके लैब में उनका एक विद्यार्थी देर रात में भी काम करता रहता है.

एक दिन रदरफ़ोर्ड ने उस विद्यार्थी से पूछा – “तुम देर रात काम करते रहते हो, क्या सुबह से काम नहीं करते?”

“मैं सुबह भी काम करता हूँ.” विद्यार्थी ने गर्व से कहा.

“ओह, पर फिर तुम सोचते कब हो?” रदरफ़ोर्ड ने आश्चर्य से पूछा.

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226

पसंद अपनी अपनी

पशु चिकित्सक ने दिनेश को टॉमी को कॉड लिवर आइल पिलाने की सलाह दी. दिनेश दवाई की दुकान से कॉड लिवर आइल ले आया. वह पहले भी अपने प्रिय कुत्ते को दवाइयाँ पिलाता रहा था. उसका कुत्ता दवाइयाँ पीने में बहुत विरोध करता था और हर बार दिनेश कुत्ते को पकड़ कर उसका मुंह अपने घुटने में दबा कर दवाई कुत्ते के गले के भीतर डालता था.

दिनेश कुत्ते को कॉड लिवर आइल इसी तरह पिलाता रहा. एक दिन इसी मारामारी में थोड़ा सा कॉड लिवर आइल नीचे बिखर गया. और दिनेश ने आश्चर्य से देखा कि टॉमी उस बिखरे कॉड लिवर आइल को प्रेम से चाट रहा है!

पिछले दो हफ्ते से दिनेश और टॉमी के बीच कॉड लिवर आइल पिलाने के लिए जंग होती रही थी, परंतु यह दवाई के लिए नहीं थी, बल्कि उसे पिलाने की विधि के लिए थी!

आप चीजों को अपने मुताबिक और अपनी विधि से करने के लिए जंग लड़ते हैं. इसके बजाए उन्हें प्यार से और प्राकृतिक रूप से होने दें तो कहीं ज्यादा अच्छा होगा.

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227

जल्दी चलो

एक भुलक्कड़ व्याख्याता को व्याख्यान के लिए एक जगह जाना था. वह पहले ही लेट हो गया था.

उसने एक टैक्सी को रोका और बैठते हुए बोला – चलो जल्दी चलो.

टैक्सी वाला टॉप स्पीड में चलने लगा.

थोड़ी देर बाद व्याख्याता को याद आया कि उसने तो टैक्सी ड्राइवर को कहाँ जाना है यह तो बताया ही नहीं.

उसने टैक्सी ड्राइवर से पूछा – “तुम्हें पता है कि मुझे जाना कहाँ है?”

“नहीं सर,” टैक्सी ड्राइवर ने जवाब दिया – “पर, मैं जल्दी चल रहा हूँ, जैसा कि आपने कहा था.”

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228

दुर्योधन की समझ

महाभारत युद्ध के दौरान एक दिन दुर्योधन भीष्म के पास पहुंचे और उनके सामने अपनी गलती स्वीकारी और कहा कि राज्य के लालच से उनसे यह भूल हो गई और इतना बड़ा संग्राम हो गया. और इस संग्राम की बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी इसका भी उन्हें अंदाजा है.

परंतु इस स्वीकारोक्ति के बाद भी दुर्योधन ने अपना लड़ाई झगड़े का व्यवहार छोड़ा नहीं और पांडवों से युद्ध करते रहे.

आपकी सोच, समझ और स्वीकारोक्ति की कोई कीमत नहीं यदि आपके कार्य उस अनुरूप न हों.

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229

शांति

तीन साधु शांति से ध्यान करना चाहते थे. परंतु उन्हें कोई शांतिप्रद स्थल नहीं मिला. अंत में वे हिमालय की कंदराओं में चले गए. वहाँ गुफ़ा में परिपूर्ण, पिन-ड्रॉप शांति थी.

एक वर्ष बीत गया. पहले साधु ने कहा – “बड़ी ही शान्ति प्रिय जगह है यह”

एक और वर्ष बीत गया. दूसरे साधु ने कहा – “हाँ”

तीसरा वर्ष बीतने हो आया. तीसरे साधु ने कहा – “आप दोनों बहुत बातें करते हैं. मैं तो कहीं और जाकर ध्यान करता हूँ.”

(सुनील हांडा की किताब स्टोरीज़ फ्रॉम हियर एंड देयर से साभार अनुवादित. कहानियाँ किसे पसंद नहीं हैं? कहानियाँ आपके जीवन में सकारात्मक परिवर्तन ला सकती हैं. नित्य प्रकाशित इन कहानियों को लिंक व क्रेडिट समेत आप ई-मेल से भेज सकते हैं, समूहों, मित्रों, फ़ेसबुक इत्यादि पर पोस्ट-रीपोस्ट कर सकते हैं, या अन्यत्र कहीं भी प्रकाशित कर सकते हैं.अगले अंकों में क्रमशः जारी...)

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