आज से ठीक तीन वर्ष पहले हिन्दी चिट्ठासंसार में ले देकर सिर्फ पचास चिट्ठाकार थे. आइए देखते हैं कि उस दौरान चिट्ठाकार क्या और कैसे लिख रहे थ...
आज से ठीक तीन वर्ष पहले हिन्दी चिट्ठासंसार में ले देकर सिर्फ पचास चिट्ठाकार थे. आइए देखते हैं कि उस दौरान चिट्ठाकार क्या और कैसे लिख रहे थे.
प्रस्तुत है 30 मई 2005 को छींटे और बौछारें में प्रकाशित मूल प्रविष्टि :
10 वीं अनुगूँज: चिट्ठियाँ लिखने के दिन, लगता है सचमुच लद गए.
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जब मैंने 10 वीं अनुगूँज के लिए विषय दिया था तो उत्साहित था कि लोग-बाग जी भर के चिट्टियाँ लिखेंगे, चिट्ठियाँ लिखकर अपने पुराने दिनों की यादों को ताज़ा करेंगे या भविष्य का जायजा लेंगे, और चिट्ठियाँ लिखने की अपनी भूलती-बिसरती कला को एक बार फिर याद कर उसे परिष्कृत परिमार्जित करने की कोशिश करेंगे.
परंतु, साहबान, मैं गलत था, मेरा यह खयाल गलत था. मेरा यह विचार सिरे से ख़ारिज कर दिया गया. दरअसल, दुनिया अब तेज़ी से प्रगति पथ पर है और चिट्ठी लिखने पढ़ने का माद्दा लोगों के पास से ख़त्म होता जा रहा है.
इससे लगता है कि चिट्ठियाँ लिखने के दिन सचमुच लद गए. भले ही उसे हमें अपने कम्प्यूटर पर लिखने कहा जाए, चिट्ठियाँ लिखना हम भूलते जा रहे हैं. यही वजह है कि हिन्दी के पचास से ऊपर चिट्ठाकारों में से बमुश्किल आधा दर्जन चिट्ठियाँ ही पोस्ट हुईं. एक लिहाज से यह आयोजन असफल हो गया है. और इस असफल, दसवें आयोजन की बात यहीं, इसी पंक्ति पर क्यों न ख़त्म कर दी जाए?
पर, रुकिये, एक दूसरी निगाह डालें तो दिखता है कि कुछ ऐसी अच्छी चिट्ठियाँ भी पोस्ट हुई हैं, जिनके बारे में अगर हम बात करेंगे तो पाएंगे कि उनमें से एक-एक चिट्ठी सैकड़ों चिट्ठियों के बराबर वज़न रखती हैं. और इनमें से हर एक चिट्ठी 10 वीं अनुगूँज जैसे कई-कई आयोजनों को सफल बनाने का माद्दा रखती हैं.
तो, फिर, आइए इस आयोजन के लिए मिली तमाम चिट्ठियों को एक-एक कर पढ़ें-
अनुगूँज को पहले-पहल चिट्ठी भाई प्रेम पीयूषने भेजी. चिट्ठी क्या है, पूरा का पूरा सिन्दूरिया आम है. एक-एक पंक्ति पढ़ते जाएँ, सिन्दूरिया के स्वाद का अंदाज़ा लगाते जाएँ. काश, चिट्ठी के साथ पार्सल भी मिल पाता सिन्दूरिया आमों भरा. वैसे, अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके ऑगन का सिन्दूरिया कितना मीठा होगा. और, दीवार के पार उनकी डालों को, बच्चों के लिए आम टपकाते देख कर अगर, भाई प्रेम खुश हो रहे हैं, तो फिर निश्चित जानिये ये आम संसार के सबसे मीठे आम हैं. अन्यथा तो लोग अपने आँगन के आम को आजकल इसलिए काट देते हैं कि कहीं उनकी दीवारें क्रेक न हो जाए.
आमों का स्वाद तो काफी मीठा है ही, सुरजापूरी का स्वाद से यह स्वाद कुछ विशिष्ठ भी है । चार साल हो गये इस प्रसंग के । आसपास के पेङों में आम आये न आये इस सिन्दुरिया का आँचल खाली न जाता है । आजकल लदा पङा है यह आमों से , पिताजी भारी हो रहे डालों को बासों के दर्जन भर सहारे से टिकाये हैं । अब तो इसे काटने का याद पङते ही देह सिहर जाता है । बहुत पहले जब वह छोटा ही था, ठीक उसके जङ के पास घर की नियमित चाहरदीवारी भी खङी करनी पङी थी। मगर पंचफुटिया चाहरदीवारी से परे, आजकल सङक पर वह बच्चों के लिए कच्चे ही सही मगर वह कुछ आम टपकाता ही रहता है ।
चिट्ठियों के बीच ही, जीतू भाई ने भाई महावीर शर्मा की कविता “ससुराल से पाती आई है” का जिक्र किया. यह सारगर्भित, मजेदार, हास्य-व्यंग्य भरी कविता आपको हँसी के रोलरकोस्टर में बिठाकर यह बताती है कि प्रियतम की “ससुराल से पाती” “ससुराल की पाती” कैसे बन जाती है.
इस चिट्ठी की कुछ पंक्तियाँ मुलाहजा फ़रमाएँ:
ससुराल से पाती आई है !
पाती में बातें बहुत सी हैं, लज्जा आती है कहने में
जा कर बस लाना ही होगा, अब खैर नहीं चुप रहने में
—-
ससुराल के स्टेशन पर आ , मैं गाड़ी से नीचे आया
जब आंख उठा कर देखा तो टी.टी.आई सम्मुख पाया
मांगा उसने जब टिकट तो मैं बोला भैय्या मजबूरी है
कट गई जेब अब माफ करो , मुझ को एक काम ज़रूरी है
पर डाल हथकड़ी हाथों में , ससुराल की राह दिखाई है ।
ससुराल की पाती आई है ।।
उम्मीद है कि इस चिट्ठी से सीख लेकर, अब, हम, चाहे जितनी अर्जेंसी हो, चाहे जैसी भी प्यार भरी चिट्ठी तत्काल बुलावे का आए, अपनी यात्रा सोच समझ कर, जेबकतरों से सावधान रहकर करेंगे, नहीं तो हमारे ससुराल का पता बदलते देर नहीं लगेगी.
अगर आपके आँसू कुछ समय से सूख चुके हैं, भावनाओं का कोई प्रवाह कुछ समय से आपको द्रवित नहीं कर पाया है, जीवन के कठोर राहों ने आपके भीतर की भावनाओं को भी कठोर बना दिया है, या सीधे शब्दों में ही, अगर आप पिछले कुछ समय से रो नहीं पाए हैं, और रोना चाहते हैं तो इन सबका इलाज अपनी पाती में लेकर आए हैं भाई महावीर. वे खुद भी रोते हैं, और आपको भी मजबूर करते हैं कि आप उनके साथ जार-जार रोएँ. पर, जो आँसू आपकी आँखों से निकलेंगे, वे खुशी और सांत्वना के आँसू होंगे. मैं इन पंक्तियों को पढ़ कर घंटों रोया हूँ – क्या आप मेरा साथ नहीं देंगे?
‘ डैडी, जिस प्रकार आपने लन्दन के वातावरण में भी मुझे इस योग्य बना दिया कि आपके हिन्दी में लिखे पत्र पढ़ सकती हूं और समझ भी सकती हूं। उसी प्रकार मैं आपके नाती को हिन्दी भाषा सिखा रही हूं जिससे बड़ा हो कर अपने नाना जी के पत्र पढ़ सके। आपके सारे पत्र मेरे लिये अमूल्य निधि हैं।मेरी वसीयत के अनुसार आपके पत्रों का संग्रह उत्तराधिकारी को वैयक्तिक संपत्ति के रूप में मिलेगा!‘
सुन कर मेरे आंसुओं का वेग रुक ना पाया! मेरी पत्नी ने टेलीफोन का चोंगा हाथ से ले लिया…!
आइए, अब अपने आँसू पोंछें और अगली चिट्ठी पढ़ें. बहन प्रत्यक्षा चिट्ठी लिखने की कोशिश करती हैं, और वादा करती हैं कि भविष्य में वे लंबे ख़त लिखेंगी. हमें उनके ख़त का इंतजार है. परंतु अपनी अभी की कोशिश में वे हम सबको उद्वेलित करती प्रतीत होती हैं कि सोचने और लिखने की प्रक्रिया को कभी विराम न दें:
अब अगर कोई बात मुकम्मल सी न लगे तो दोष मेरा नहीं..
तो लीजिये ये पाती है उन बंधुओं के नाम जो विचरण कर रहे हैं साईबर के शून्य में………..सब दिग्गज महारथी अपने अपने क्षेत्र में
और उससे बढ कर ये लेखन की जो कला है, चुटीली और तेज़ धार,..पढकर चेहरे पर मुस्कुराह्ट कौंध जाये, उसमें महिर…
पर मेरे हाथ में ये दोधारी तलवार नहीं..शब्द कँटीले ,चुटीले नहीं.
न मैं किसी वर्जना ,विद्रोह की बात लिख सकती हूँ…….
तो प्यारे बँधुओं..मैं लिखूँ क्या….? ‘मैं सकुशल हूँ..आप भी कुशल होंगे ” की तर्ज़ पर पर ही कुछ लिख डालूँ………..पर आप ही कहेंगे किस बाबा आदम के जीर्ण शीर्ण पिटारी से निकाला गया जर्जर दस्तावेज़ है……..
चलिये ह्टाइये….अभी तो अंतरजाल की गलियों में कोई रिप वैन विंकल की सी जिज्ञासा से टहल रही हूँ…….शब्दों के अर्थ नये सिरे से खोज़ रही हूँ…लिखना फिर से सीख रही हूँ…… हम भी धार तेज़ करने की कोशिश में लगे हैं..जब सफल होंगे तब एक खत और ज़रूर लिखेंगे..तब तक बाय
प्रत्यक्षा की दूसरी चिट्ठी आने में कुछ देरी है. तब तक के लिए किसी और की चिट्ठी पढ़ी जाए. अगली चिट्ठी भाई आशीष ने लिखी है प्रधान मंत्री के नाम. प्रधान मंत्री के नाम खुली और सार्वजनिक चिट्ठी यूँ तो उन्होंने लिखी है, परंतु ये बातें संभवत: देश का हर-एक नागरिक उनसे कहना चाहता है. फ़र्क़ यह है कि हममें इन कठोर बातों को प्रत्यक्ष कहने का साहस पैदा नहीं हो पाता. उम्मीद है कि इस चिट्ठी को भारत के कर्ता-धर्ता पढ़ेंगे और देश की भलाई के बारे में कुछ काम करेंगे. आशीष अपने पत्र में भारत के आम आदमी की दशा-दुर्दशा का जिक्र करते हुए प्रधान मंत्री से गुज़ारिश करते हैं:
आशा है आप और आपके मंत्री कुछ ऐसा करेंगे जिससे कि इस देश के आम आदमी का भला हो। आम आदमी से मेरा तात्पर्य है वो आदमी जो रोजी रोटी की तलाश में पसीना बहाता है जैसे कि हमारे किसान, मजदूर, सफाई कर्मी, रिक्शे वाले भाई, गरीब पुलिस वाले हवलदार इत्यादि जिनकी वजह से ये देश चल रहा है। ये लोग जो कि देश के प्राण हैं क्योंकि ये देख के लिये अनाज पैदा करते हैं, देश को साफ रखते हैं, आलीशान मकान और भव्य इमारतें बनाते हैं, कानून व्यवस्था बनाये रखते हैं, अधकचरे मकानों में रहते हैं, जिनके बच्चे शायद ही स्कूल जाते हैं और जो स्कूल जाते हैं वो अपने मां बाप के व्यवसाय को शायद ही अच्छी नजर से देखते हों, जिनके बच्चे कुपोषित हैं, जिनको बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवा की दरकार है पर मिलती नहीं है।
अगली पाती फ़ुरसतिया जी की है. पहले तो वे चिट्ठी नाम की कहानी आपको पढ़वाते हैं, और फिर इस नाचीज़ को संबोधित करते हुए अपनी पाती में समस्त चिट्ठाकारों की वो धुनाई करते हैं कि बस क्या कहें. वैसे, उनकी यह चिट्ठी चिट्ठाकारों को ही नहीं, बल्कि इससे इतर, जगत के तमाम लोगों को, अपने अंतर्मन के भीतर झांकने और अपनी वास्तविकता का अहसास करवाती फिरती है. जब भीम को अपनी ताक़त का घमंड हुआ था तो हनुमान ने सिर्फ अपनी पूंछ से भीम को यह दिखा दिया था कि कहीं भी, कोई भी पूरा ताक़तवर नहीं हो सकता, और, ताक़त जैसी बातें रिलेटिव बातें हैं. भाई फ़ुरसतिया की चिट्ठी से मेरा भी वहम फ़ुर्र हो गया और मैं धरातल पर आ गिरा. आप भी अपनी ज़मीन जाँच लें:
अच्छा, बीच -बीच में यह अहसास भी अपना नामुराद सर उठाता है कि हम कुछ खास लिखते हैं। ‘समथिंग डिफरेंट’ टाइप का। हम यथासंभव इस अहसास को कुचल देते हैं पर कभी-कभी ये दिल है कि मानता नहीं। तब अंतिम हथियार के रूप में मैं किसी अंग्रेजीलेखक की लिखी हुई पंक्तियां दोहराता हूँ:-
“दुनिया में आधा नुकसान उन लोगों के कारण होता है जो यह समझते हैं कि वे बहुत खास लोग हैं।”
यह लंबी चिट्ठी अपने भीतर कईयों चिट्ठियों को समाए हुए है. यह वे खुद स्वीकारते भी हैं. दरअसल, अपने इस एक ही पत्र के माध्यम से बहुतों को, अलग-अलग तरीके से, अलग-अलग पत्र लिखते हैं:
हर आदमी खास ‘टेलर मेड’होता है। उससे निपटने का तरीका भी उसी के अनुरूप होता है। यह हम जितनी जल्दी जान जाते हैं उतना खुशनुमा मामलाहोता है।
बहरहाल ,अब इतना लंबा पत्र लिख गया कि कुछ और समझ नहीं समझ आ रहा है। थोड़ा कहा ,बहुत समझना। यह पत्र मैंने रविरतलामी के लिये लिखना शुरु किया था । पता नहीं कैसे दूसरे साथी अनायास आते चले गये। अपने एक दोस्त से बहुत
समय बाद मिलने पर मैंने उससे कहा कि मैं तुमको अक्सर याद करता हूँ। उसने जवाब दिया -याद करते हो तो कोई अहसान तो नहीं करते। याद करना तुम्हारी मजबूरी है.
फ़ुरसतिया जी का पत्र इस शेर के बग़ैर अधूरा ही रहता, जो मुझे ख़ासा पसंद आया:
धोबी के साथ गदहे भी चल दिये मटककर,
धोबिन बिचारी रोती,पत्थर पे सर पटककर।
चलिए, बहुत पटक लिए सर, अब आगे की चिट्ठी पढ़ते हैं. जीतू भाई को अपनी बीवी के लिए ड्राइवर, कुली, कैशियर बनते बनते उन्हें अपना ब्लॉग लिखने को समय नहीं मिल पा रहा, तो फिर वे चिट्ठी क्या ख़ाक लिखते. फिर भी, वे इतना तो उपकार कर गए कि अपनी प्रेम कहानी में इस्तेमाल की गई आख़िरी चिट्ठी हम सबके पढ़ने के लिए पोस्ट कर गए. इस वादे के साथ कि शिब्बू के ख़त के किस्से को वे शीघ्र ही बताएँगे. हमें उसका इंतजार है, पर तब तक उनकी आख़िरी, कवितामयी प्रेमपाती को क्यों न पढ़ लें:
तेरी खुशबू मे बसे खत मै जलाता कैसे
प्यार मे डूबे हुए खत मै जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मै जलाता कैसे
जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा
जिनको एक उम्र कलेजे से लगाये रखा
दीन जिनको जिन्हे ईमान बनाये रखा
तेरी खुशबू मे बसे ख़त मै जलाता कैसे…..
इस बीच अनुगूँज को अगली चिट्ठी मिली भाई अतुल की. पढ़ने पर लगा कि क्या यह चिट्ठी है? पर, फिर लगा कि भाई, अगर अगले ने चिट्ठी भेजी है तो यह चिट्ठी ही है. और क्या मज़ेदार चिट्ठी है. चिट्ठी पढ़कर आपको हँसते-हँसते अगर पेचिश न हो जाए तो आप मेरा नाम बदल देना. अतुल भाई, आपकी ऐसी चिट्ठियों का इंतजार रहेगा. इधर लोग-बाग़ हँसना भूल गए हैं ना, इसीलिए. चिट्ठी को दुबारा पढ़कर थोड़ा और हँसा जाए:
हम बारातियो के साथ वह भी बाराती बनके बाहर आ गया था| वह बेवकूफ कैदी बाहर आकर शादी के पँडाल में जलेबी जीमने लगा और उसे हलवाई की ड्यूटी कर रहे दरोगा जी ने ताड़ लिया| वहाँ जेल में कैदियो के परेड शुरू होने पर एक कैदी कम निकलने से चिहाड़ मच गई थी| थोड़ी ही देर में स्थिति नियंत्रण में आ गयी| हलाँकि इस हाई वोल्टेज ड्रामे को देखकर कुछ बारातियो को पेचिश लग गई| अब वह सब तो फारिग होने फूट लिए उधर चौहान साहब देर होने की वजह से लाल पीले होने लगे|
अब, अगर आपकी हँसी रुक गई हो तो अगला ख़त पढें? पर इस बार इस बात की क्या गारंटी है कि अगला पत्र पढ़कर आप न हँसें? भाई तरूण पत्र तो लिखते हैं प्रीटी वूमन को परंतु वे हमारे-अपने जैसे स्मार्ट लोगों की स्मार्ट सोच का फ़ालूदा बनाते दिखाई देते हैं. इस पत्र में हास्य है, व्यंग्य है, अपनी तथाकथित स्मार्ट सोच पर करारी चोट भी है. अब आप हँसें, या रोएँ, फ़ैसला आपका है:
यहाँ एक बात मेरी समझ मे नही आयी कि हम सब लोग तो यहाँ ‘विदेशी’ हैं फिर क्यों एक दूसरे को देशी कहते हैं। ऐसे ही दिन गुजरने लगे। एक दिन फिर मै न्यूयार्क गया, इंडिया मे अपने शहर मे छोटी-छोटी गलियां हुआ करती थीं यहाँ ‘बिग-ग’लियां थीं। टाईम स्कवायर मे रात के वक्त ऐसा लगा जैसे सैकड़ों ‘चिराग २०००’ वोल्ट के जल रहे हों। वक्त गुजरने के साथ-साथ मेरा स्टेटस भी एन आर आइ का हो गया लेकिन मै अपने को ‘इ-एनआरआइ’ कहलाना पंसद करता था। एन आर आइ होते ही मै अमेरिका की बड़ी-बड़ी बातें करने लगा और इंडिया मुझे एक बेकार सा देश लगने लगा।
ये क्या? अगला पत्र मेरा अपना ही लिखा हुआ? इस पत्र की नुक्ता-चीनी करना अशोभनीय और अवांछित होगा, इसीलिए, चलिए, इसे बिना किसी टिप्पणी के, यूँ ही पढ़ लेते हैं:
मुझे याद आ रही है बीते हुए साल की जब तुम दोनों ने घनघोर मेहनत की थी. जब तुमने मिलकर तिनका-तिनका बटोरा था और मेरे अँगने में एक छोटा सा घोंसला बनाया था. शहर के कंकरीट के जंगल में प्राकृतिक तिनके तुम्हें कुछ ज्यादा नहीं मिले थे तो तुमने प्लास्टिक के रेशे, पॉलिथीन की पन्नियाँ और काग़ज़ के टुकड़ों की सहायता से अपने घोंसले का निर्माण किया था. तुम्हें वृक्ष की मजबूत टहनी नहीं मिली थी तो अपने घोंसले को तुमने कंकरीट की सीढ़ियों के नीचे से जा रहे तार के सहारे मजबूरी में बनाया था. तुम लोगों ने सिर्फ चोंच की सहायता से ऐसा प्यारा, सुंदर और उपयोगी घोंसला बनाया था कि मैं सोचता हूँ कि अगर तुम्हारे पास हमारी तरह सहूलियतें होती तो क्या कमाल करते.
अब मेरे हाथ में यह आख़िरी पत्र बचा है. भाई रमण का यह सारगर्भित, सोचने को मजबूर करता पत्र. यह एक प्रकार से पाती का मरसिया है, जो वे अपने पत्र के माध्यम से पढ़ रहे हैं. हम सब बड़े दुःख के साथ चिट्ठी को मरता हुआ देख रहे हैं. आइए, हम भी भाई रमण की इन पंक्तियों के साथ चिट्ठी की मौत का मातम मनाएँ:
मेरी प्यारी पाती,
मुझे बहुत दुख है कि तुम अब इस दुनिया में नहीं रही। खैर जहाँ भी हो, सुखी रहो। इस दुनिया में फिर आने की तो उम्मीद छोड़ दो क्योंकि इस दुनिया में तुम्हारा स्थान ईमेल ने ले लिया है। सालों हो गए तुम्हें गुज़रे हुए। वास्तव में तुम्हारी याद तो बहुत आती है। तुम्हारे रहते ही तुम्हारी पूछ बहुत कम हो गई थी, जैसा हर किसी के साथ बुढ़ापे में होता है। लोग खबर एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए पहले ही टेलीफोन का इस्तेमाल करने लग गए थे।
ॐ शांति शांतिः अथ श्री 10 वीं अनुगूँज आयोजनम सम्पन्नम् भवतः
सभी चिट्ठाकार मित्रों को साधुवाद.
पुनश्च: अगर किसी मित्र की चिट्ठी भूलवश पढ़ने-पढ़ाने में छूट गई हो, तो कृपया
मुझे क्षमा करते हुए तत्काल सूचित करें ताकि उसे भी पढ़-पढ़ा लिया जाए.
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रवि भाई साहब्,
जवाब देंहटाएंशानदार व जानदार प्रस्तुति --
अतीत के चलचित्र
साकार हो उठे हैँ!
- लावण्या
चिट्ठों में चिट्ठियाँ पढ़कर आनन्द आ गया. सोचने लगे कि इतनी सारी पुरानी चिट्ठियाँ सँभाल कर रखी हैं उन्हें खोल कर पुरानी यादों को हम भी ताज़ा कर लें.
जवाब देंहटाएंपुरानी यादें ताजा कर दी, बहुत आभार.
जवाब देंहटाएंतमाम यादें ताजा हो गयीं।
जवाब देंहटाएंयाद आ गया मुझको गुजरा जमाना....
जवाब देंहटाएंक्या बात है ,शुक्रिया अतीत के झरोखे खोलने के लिए!
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