देसीपंडित का क्रियाकर्म...

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. देसीपंडित, चिट्ठा-चर्चा और रचनाकार **-** पैट्रिक्स ने अंततः तमाम अटकलों को विराम देते हुए, अपने साथी चिट्ठाकारों की सहमति व असहमति क...

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देसीपंडित, चिट्ठा-चर्चा और रचनाकार

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पैट्रिक्स ने अंततः तमाम अटकलों को विराम देते हुए, अपने साथी चिट्ठाकारों की सहमति असहमति के साथ देसीपंडित को बन्द करने का फ़ैसला ले ही लिया.

देसीपंडित को उन्होंने अपने व्यक्तिगत उत्साह से प्रारंभ किया था जो बढ़ते हुए दानवाकार हो चुका था और उसमें कोई दर्जन भर लिखने वाले लोग जुड़ चुके थे, और इक्का-दुक्का को छोड़कर बाकी सभी नियमित और अच्छा खासा लिखते थे.

देसीपंडित का रूप कुछ-कुछ चिट्ठा-चर्चा जैसा ही है जिसमें तमाम विश्व में रह रहे भारतीयों के व भारत से संबंधित उदाहरण योग्य ताजा चिट्ठा पोस्टों के बारे में संक्षिप्त जानकारियाँ उस चिट्ठे की कड़ी समेत होती थी जिससे चिट्ठा-पाठकों को चिट्ठों के समुद्र में से बढ़िया मोती चुनने में मदद मिलती थी. क्या चिट्ठा-चर्चा का भविष्य भी लगभग वैसा ही होना है? अभी तो बमुश्किल 300 हिन्दी चिट्ठे हैं, रोजाना चिट्ठों का आंकड़ा यदा कदा 20 से पार जाता है, तो चिट्ठा-चर्चा में प्रायः सभी हिन्दी चिट्ठे अपना स्थान पा लेते हैं. परंतु जब ये आंकड़े हजारों लाखों में चले जाएंगे तो उनमें से रोज के लिए दर्जन भर, उदाहरण योग्य चिट्ठों को छांटने में सबको सचमुच का पसीना तो आएगा ही, और तब इसकी असली उपयोगिता सिद्ध भी हो सकेगी, और तब इसमें जुड़े लेखकों, चिट्ठाचर्चाकारों, जिनमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है, के वास्तविक प्रतिबद्धताओं का पता चल सकेगा.

तो बात चल रही थी देसीपंडित को बन्द करने की. हालाकि पैट्रिक्स ने देसीपंडित अपने व्यक्तिगत उत्साह से प्रारंभ किया था और सारा प्रबंधन उनका व्यक्तिगत था, बाद में इसमें बहुत से लोग जुड़े, और एक प्रकार से यह भारतीय चिट्ठाकारों का सार्वजनिक मिलन स्थल बन गया. एक तरह से देसीपंडित सार्वजनिक सम्पत्ति बन गया था. हिन्दी चिट्ठों के बारे में आरंभ में देबाशीष और अनूप इसमें लिखते थे और बाद में विनय लिखने लगे थे. जब देसीपंडित दानव का आकार लेने लगा तो आवश्यक खर्चों के लिए विज्ञापनों और चंदे के जरिए पैसा जुटाया गया. दिन के बेहतरीन, पठनीय चिट्ठों के उदाहरण लिखने वाले चिट्ठा समीक्षक, देसीपंडित के जरिए उद्धृत चिट्ठाकारों तथा देसीपंडित के पाठकों - सभी के लिए देसीपंडित उनका अपना, खास बन गया था. इसे पैट्रिक्स न सिर्फ बन्द कर रहे हैं, इंटरनेट की दुनिया से इसे मिटा भी रहे हैं. इसके पीछे वे कारण दे रहे हैं - देसीपंडित उनका ‘व्यक्तिगत समय' व ‘श्रम' आवश्यकता से अधिक खाने लगा है! पर, वे ‘कहीं' यह भी कह रहे हैं कि भविष्य में कभी दिमाग में विचार आया तो देसीपंडित को वापस लाया जाएगा.

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चिट्ठा-चर्चा का आरंभिक विचार देबाशीष-अनूप द्वय का था. तो क्या किसी दिन इन्हें यह लगेगा कि चिट्ठा-चर्चा उनका ज्यादा समय खा रहा है तो उसे बंद कर देंगे? रचनाकार के आरंभिक प्रकाशन के समय बहुत से रचनाकार मित्रों ने सहभागिता की सहमति जताई थी. आरंभिक उत्साह और अपनी रचनाओं के आरंभिक इंटरनेट-दर्शन के पश्चात् वह उत्साह तेजी से ठंडा पड़ गया चूंकि रचनाकार अवैतनिक-अव्यावसायिक है, और रचनाकारों को कोई भुगतान नहीं कर सकता. पूर्वप्रकाशित रचनाओं के रचनाकार पर पुनर्प्रकाशन के लिए भी कई लेखकों द्वारा पारिश्रमिक के प्रश्न चिह्न लगाए जाते रहे हैं. ऊपर से रचनाओं को छांट-बीन कर टाइप करने-करवाने की समस्या तो चिरंतन है ही.

पैट्रिक्स जो आज देसीपंडित के लिए सोच रहे हैं व उसे बंद करने को तत्पर दीख रहे हैं, उस स्थिति से निरंतर तो गुजर ही चुका है रचनाकार के पुराने दिन भी कुछ ऐसे ही बीते हैं. इनपुट अधिक लेना व व्यक्तिगत तौर पर जुड़े व्यक्तियों के लिए आउटपुट ज्यादा नहीं निकलना. परंतु क्या रचनाकार को इंटरनेट से पूरा मिटा देना बुद्धिमत्ता है? शायद इसी वजह से मैंने रचनाकार के लिए अलग सर्वर या उसके स्वयं के डोमेन नाम जैसे विकल्पों के बारे में कभी भी नहीं सोचा. कम से कम जब तक गूगल का सार्वजनिक ब्लॉगर रचनाकार जैसे सार्वजनिक चिट्ठों को होस्ट करेगा, इंटरनेट पर उसका वजूद तो बना ही रहेगा. और, जिस दिन मुझे लगेगा कि मैं उस पर अपना इनपुट दे पाने में समर्थ नहीं हूँ, तो मैं खुशी - खुशी किसी उत्साही व्यक्ति को इसका प्रबंधन सौंपने को आतुर रहूंगा. और, भले ही रचनाकार लँगड़ा कर चले, चलते चलते बीमार पड़ जाए, मैं इसकी मृत्यु की कामना, और इसके दाह संस्कार का प्रबंध तो कभी भी नहीं करूंगा. और, इसीलिए रचनाकार की प्रकृति को मैंने व्यक्तिगत से आगे ले जाकर व्यावसायिक और पेशेवराना रुप देने की कोशिश की है जो आगे भी जारी रहेगी. अगर देसीपंडित यह रूप धरता तो न तो कभी यह बंद होता , और जो सहयोग इसे मिल रहा था जो रुप इसका बन रहा था, उससे तो यह कहाँ से कहाँ पहुँच जाता. परंतु आज यह अकाल मृत्यु को प्राप्त हो रहा है.

देसीपंडित के भविष्य पर सैकड़ों लोगों ने अपने अपने विचार रखे हैं - कुछ समर्थन में तो कुछ दुःख और चिंता जताते हुए. पैट्रिक्स अपने स्वयं के चिट्ठे पर चाहे जो कुछ सोचें कर सकते हैं चाहे जिन कारणों से, जब चाहें चालू-बंद कर सकते हैं, देसीपंडित को नहीं. उन्हें तमाम चिट्ठाकारों की भावनाओं को समझना होगा, उन्हें भी जवाब देना होगा. जब बहुत से विकल्प पैट्रिक्स के सामने खुले हैं तो उन्हें अपनाने में उन्हें क्या झिझक, कैसी शर्म?

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COMMENTS

BLOGGER: 8
  1. हर घटना इतिहास बनते बनते शिक्षा दे जाती हैं. देसी पंडीत का बन्द होना आघात जनक घटना हैं, जो भविष्य के प्रति सचेत करती हैं.

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  2. मुझे भी भविष्य को लेकर डर लगने लगा है... कभी नारद या चिट्ठाचर्चा या भगवान ना करे तरकश बन्द करना पडा तो????

    हे भगवान... बुरा सपना ....

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  3. आपकी चिंतायें जायज हैं.मैंने अभी-अभी चिट्ठा चर्चा के बारे में अपने सभी साथियों को मेल लिखी है.सुझाव मांगे हैं ताकि इसे इसकी निअय्मितता बनी रहे.अब चिट्ठाचर्चा के बंद होने की संभावना मुझे कम लगती है. और न ही रचनाकार के बंद होने के आसार नजर आते हैं. हां,रचनाकार के मामले में आपको और अपेक्षित सहयोग की दरकार है.आपकी यह बात सही लगती है कि इस तरह के प्रयास ब्लागस्पाट जैसी सुविधाऒं पर हों तो साधनों के लिहाज से उतनी तकलीफ
    नहीं होती.

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  4. कई विषय वस्तु ऐसी होती हैं कि उन पर असमय चिंता कर वर्तमान को भी रौंदा जा सकता है.
    मै नहीं समझता उतने दूरगामी स्थिती पर बहुत विचार कर कोई खास लाभ होगा. सही है आस पास होती घटनाओं के प्रति सजग रहना चाहिये और उनसे सीख लेना चाहिये मगर हम भी एक दिन उसी गति को प्राप्त होंगे, की चिंता सिर्फ़ चिता का कार्य करेगी और कुछ भी नहीं.

    देशी पंडीत का यह हश्र होगा, यह कभी विचार में नहीं था. माना जा सकता है यह उनका व्यतिगत प्रयास था मगर जब कोई वस्तु सार्वजनिक उपयोगिता की हो जाये और वो भी सबके निःस्वार्थ सहयोग से, तब उसको इस तरह का अंजाम देने का हक तो उसे शुरु करने वाले का भी नहीं है, कम से कम नैतिकता के आधार पर तो.

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  5. बेनामी11:25 am

    रवि जी,
    अगर यह 'देसी पंडित' की अंतिम विदाई और उसके तीये की बैठक की सूचना से उपजा 'श्मशानी वैराग्य' है तो कोई चिंता की बात नहीं . पर अगर यह चिन्तन और चिंता बहुत दिनों से आपके मन में उमड़-घुमड़ रही है तो इस पर गंभीर बहस होनी चाहिए . व्यक्तियों का मरना भी तकलीफ़देह होता है पर संस्थाओं का मरना -- सामूहिक सपने का मरना -- तो बेहद चिंताजनक है.
    मैं आप से पूरी तरह सहमत हूं कि अगर हम एक सपने को मूर्त रूप देने के बाद उसे जारी रख पाने में असमर्थ हों तो इसे नष्ट कर देने या मझधार में छोड़ देने से बेहतर है कि इसे अगली पीढी को सौंप दिया जाए .

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  6. अकेला व्यक्ति लंबे समय तक संस्था का विकल्प नहीं रह सकता। स्वैच्छिक भाव से प्रतिफल की कामना से रहित होकर एकल प्रयास के रूप में आरंभ किए गए सामूहिक प्रकृति के कार्यों का स्वरूप जब विशाल होने लगता है तब समय नियोजन और लागत प्रबंधन का प्रश्न अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है। कोई एक व्यक्ति लंबे समय तक उनके लिए समय निकालने और लागत का वहन करने में समर्थ नहीं हो सकता। ऐसे कार्यों के लिए समय और लागत की साझेदारी होना अति आवश्यक है।

    यह सुखद है कि हिन्दी चिट्ठाकारों में सामूहिक सहयोग की भावना बलवती है और मुझे आशा है कि चिट्ठा चर्चा, नारद और निरंतर जैसे हमारे संस्थागत प्रयासों का हश्र देशी पंडित की तरह नहीं होने दिया जाएगा।

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  7. बेनामी9:55 pm

    वैसे तो मैं अपनी टिप्पणी यहीं पर दे रहा था परन्तु लिखते लिखते इतनी बड़ी हो गई कि सोचा अपने ब्लॉग पर ही लिख डालूँ(वैसे भी वहाँ बहुत दिनों से कुछ लिखा नहीं था)। इस selfishness के लिए रवि जी क्षमा करना, मेरे विचार यहाँ पढ़ें। :)

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  8. इस पोस्ट से ब्लॉग के कई पुरातन रूप पता चले..

    जवाब देंहटाएं
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