व्यंग्य *-*-* दलों में विभाजन : एक शाश्वत सत्य *-*-* इस बात से कुछ लोग बहुत खुश हुए होंगे और कुछ लोग बहुत दुःखी कि कांग्रेस पार्टी एक बार फि...
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दलों में विभाजन : एक शाश्वत सत्य
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इस बात से कुछ लोग बहुत खुश हुए होंगे और कुछ लोग बहुत दुःखी कि कांग्रेस पार्टी एक बार फिर विभाजित हो गई. जनता दल कितनी असंख्य बार विभाजित हुई है, किसी को गिनती नहीं पता. पर, मेरी तरह, बहुत से ऐसे लोग भी होंगे जिन्हें इस बात से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा होगा और न ही उन्हें चिंता होगी कि किस दल में कितनी बार कितने अंतराल से किस तरह विभाजन होता रहता है. जो लोग दुःखी हो रहे हैं उन्हें शायद यह मालूम नहीं है कि विभाजन एक शाश्वत सत्य है – यथार्थ है. या फिर वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि विभाजन तो एक प्राकृतिक क्रिया है – प्रकृति का स्वभाव है. हालांकि राजनीतिक दलों में विभाजन की यह प्रकृति या प्राकृतिक क्रिया कभी-कभार ही लागू होता है और जो विभाजन होते हैं, उनके पीछे बड़े-बड़े और भारी भरकम कारक और कारण होते हैं. और जो लोग खुश हो रहे होंगे, वे भी शायद यह अहसास नहीं कर रहे होंगे कि विभाजन की पीड़ा से वे भी पहले गुजर चुके हैं और शायद भविष्य में यह पीड़ा उन्हें फिर भोगना पड़े.
प्रकृति में कोई कली खिलती है, कोई अंकुरण होता है तो कोशिकाओं के विभाजन से. हमारी पृथ्वी भी एक महाविस्फ़ोट – बिगबैंग से हुए विभाजन से बनी है. इसी प्रकार जब भी किसी दल में विभाजन होता है, एक नए दल का उदय होता है. फिर विभाजित हुए दोनों दल यह सिद्ध करने का भरपूर प्रयास करते हैं कि उनका दल ही असली, ओरिजिनल दल है. कभी कभार किसी छोटे दल में तब विभाजन होता है जब कोई बड़ा और भारी भरकम दल अपने गुरुत्व बल से छोटे दल का कुछ हिस्सा अपने में समाहित कर लेता है.
दलों में विभाजन को रोकने के लिए कानून भी बनाए गए हैं. परंतु किसी प्राकृतिक क्रिया को कभी रोका जा सका है भला? इतने कानूनों के बाद भी दलों में सुविधानुसार विभाजन होते रहते हैं – सांसद विधायक पाला बदलते रहते हैं इससे यह सिद्ध होता है कि प्रकृति किसी बंधन को स्वीकार नहीं करती. और कायदे कानूनों को तो कदापि नहीं.
विभाजन को रोकने के लिए जो कानून लागू हुए, उसके पहले विभाजन कभी भी कहीं भी हो जाता था, वह समय-काल और चक्र के बंधन के परे होता था. पार्टी का एक सदस्य भी विभाजन कर सकता था, और सांसद या विधायक रहते हुए भी अपनी मूल पार्टी को ठेंगा दिखा कर नई पार्टी खड़ी कर सकता था. अब उसे मज़बूरी वश अपनी संसद/विधानसभा सदस्यता मजबूरी में, कानूनन छोड़नी पड़ती है. मगर, दलों में विभाजन बदस्तूर जारी है.
किसी भी दल में विभाजन के पहले और बाद में बड़े दिलचस्प नजारे पेश होते हैं. कानून की परिधि से बाहर रहने के लिए गोटियाँ बिछाई जाती हैं. विभाजन को कानून सम्मत बताने के लिए व्यूह रचना की जाती है. राष्ट्रीयता, और देश सेवा के बड़े बड़े दावे किये जाते हैं. हालाकि जब जब भी कोई विभाजन होता है, बेवक़ूफ़ से बेवक़ूफ़ व्यक्ति को भी यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि ताज़ा तरीन विभाजन क्यों और किसलिए हुआ है. अख़बारों में छपे हेड लाइन की तरह उनका उद्देश्य स्पष्ट और जग जाहिर होता है परंतु वे फिर भी हर कोई को अपनी अलग कहानी बताते फिरते हैं, और जनता की सेवा को अपना मुख्य उद्देश्य बताते हैं.
विभाजन के कारण कल तक एक साथ सिर से सिर मिलाकर रहने वाले देखते ही देखते जानी दुश्मन हो जाते हैं और, किसी और दल के, कल तक के जानी दुश्मन, विभाजन के बाद – एक घर और एक परिवार के आदमी हो जाते हैं. कभी-कभी विभाजन के समय जो आकांक्षाएँ-इच्छाएँ रहती हैं, वे बाद में भी जब पूरी नहीं हो पाती हैं तो उन विभाजित दलों में पुनः विलयन हो जाता है. यह विभाजन विलयन का दौर तब ज्यादा होता है जब मौसम अनुकूल होता है – यानी जब कोई चुनाव आसपास होता है – या फिर किसी समय किसी सरकार की स्थिति, बहुमत के अभाव के कारण डाँवाँडोल होती रहती है.
वहीं कई दल आंतरिक रूप से विभाजित रहते हैं. यह आंतरिक विभाजन यूँ तो बाहर से दिखाई नहीँ देता, परंतु उसकी विभाजित शाखाएँ आंतरिक रूप से एक दूसरे से भीषण होड़ करती रहती हैं. यह आंतरिक विभाजन ज्यादा आम है. इस तरह का विभाजन हर दल में हर स्तर पर हर समय मौजूद रहता है. आंतरिक विभाजन का उद्देश्य ऊंची कुर्सी पर बैठे व्यक्तियों को नीचे की कुर्सी पर बैठे व्यक्तियों द्वारा हटा कर उन ऊंची कुर्सियों पर कब्जा जमाना होता है.
अब जब यह तथ्य सिद्ध हो गया है कि दलों में विभाजन यथार्थ है, इसे नकारा नहीं जा सकता, तो निश्चित ही विभाजन के उपरांत बना ताज़ा, नया दल भी आगे विभाजित होगा. तो, आइए करते हैं इंतजार उस दिन का.
(संपादित रूप फ्री प्रेस में दि. 14-7-94 को पूर्व प्रकाशित)
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लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम को उसके तमाम अनुप्रयोगों सहित हिन्दी भाषा में लाने के प्रयासों की यात्रा की रोमांचक कहानी:
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हिन्दी कम्प्यूटर की पृष्ठभूमि:
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मैं पिछले बीसेक सालों से हिन्दी साहित्य लेखन से जुड़ा हुआ हूँ. हालांकि मैंने कोई धुआँधार नहीं लिखा है, न ही जाने-पहचाने लेखकों की श्रेणी में मेरा नाम है, मगर लेखन की यह यात्रा लगभग अनवरत जारी है. किसी भी रचना को प्रिंट मीडिया में प्रकाशित करवाने के लिए आपको पहले अच्छी हस्त-लिपि में लिख कर या टाइप करवा कर भेजना होता है. मैं इस कार्य को आसान बनाने के तरीकों को हमेशा ढूंढता रहता था. जब मैं अस्सी दशक के उत्तरार्ध में पीसी एटी पर डॉस आधारित हिन्दी शब्द संसाधक ‘अक्षर’ पर कार्य करने में सक्षम हुआ तो मैंने उस वक्त सोचा था कि यह तो किसी भी हिन्दी लेखक के लिए अंतिम, निर्णायक उपहार है. लिखना, लिखे को संपादित करना और जब चाहे उसकी प्रति छाप कर निकाल लेना – कितना आसान हो गया था. उसके बाद सीडॅक का जिस्ट आया, जिसमें भारत की कई भाषाओं में कम्प्यूटर पर काम किया जा सकता था. परंतु उसके उपयोग हेतु एक अलग से हार्डवेयर कार्ड लगाना होता था जो बहुत मंहगा था, और मेरे जैसे आम उपयोक्ताओं की पहुँच से बाहर था. शीघ्र ही विंडोज का पदार्पण हुआ और उसके साथ ही विंडोज आधारित तमाम तरह के अनुप्रयोगों में हिन्दी में काम करने के लिए ढेरों शार्टकट्स उपलब्ध हो गए और मेरे सहित तमाम लोग प्रसन्नतापूर्वक कम्प्यूटरों में हिन्दी में काम करने लगे.
इसी अवधि में मैंने विंडोज पर हिन्दी में काम करने के लिए उपलब्ध प्राय: सभी प्रकार के औज़ारों को आजमाया. मैंने मुफ़्त उपलब्ध शुषा फ़ॉन्ट को आजमाया, परंतु उसमें हिन्दी के एक अक्षर को लिखने के लिए जरूरत से ज्यादा (दो या तीन) कुंजियाँ दबानी पड़ती हैं. मैंने लीप आजमाया, परंतु हिन्दी की पोर्टेबिलिटी लीप तक ही सीमित थी और विंडोज के दूसरे अनुप्रयोगों में इसके लिखे को काट-चिपका कर उपयोग नहीं हो सकता था. ऊपर से, लीप से लिखे गए दस्तावेज़ों को अगर आप किसी दूसरे के पास भेजते थे, तो वह तभी उसे पढ़ पाता था, जब उसके पास भी लीप संस्थापित हो. इसी वजह से यह लोकप्रिय नहीं हो पाया. इन्हीं वज़हों से मैंने कभी भी श्रीलिपि का भी उपयोग नहीं किया. कम्प्यूटर पर हिन्दी लेखन के लिए मैं कृतिदेव फ़ॉन्ट पर निर्भर था, जो मूलत: अंग्रेजी (ऑस्की) फ़ॉन्ट ही है, परंतु उसका रूप हिन्दी के अक्षरों जैसा बना दिया गया था. कृतिदेव अब भी डीटीपी के लिए अत्यंत लोकप्रिय फ़ॉन्ट है, परंतु अन्य दस्तावेज़ों में इसका उपयोग सीमित है.
यह समय डॉट कॉम की दुनिया के फैलाव का था और हर कोई इंटरनेट पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में लगा हुआ था. हिन्दी अखबार नई दुनिया ने अपने अख़बार को इंटरनेट पर लाकर इसकी शुरूआत कर दी थी. धीरे से प्राय: सभी मुख्य हिन्दी अख़बार इंटरनेट पर उतर आए. परंतु इन अख़बारों में उपयोग किए जा रहे फ़ॉन्ट अलग-अलग , एक दूसरे से भिन्न हैं. एक अख़बार का लिखा उसी अख़बार के फ़ॉन्ट से ही पढ़ा जा सकता है. डायनॉमिक फ़ॉन्ट से कुछ समस्याओं को दूर करने की कोशिशें की गईं, मगर वे सिर्फ इंटरनेट एक्सप्लोरर तक सीमित रहीं. अन्य ब्राउज़रों में यह काम नहीं आया. इससे परिस्थितियाँ पेचीदा होती गईं, चूँकि एक आम कम्प्यूटर उपयोक्ता से यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वह किसी खास साइट को पढ़ने के लिए खास तरह के फ़ॉन्ट को पहले डाउनलोड करे फिर संस्थापित भी करे. इन्हीं कारणों से मैंने इंटरनेट पर अपने हिन्दी साहित्य को प्रकाशित करने के लिए अपनी व्यक्तिगत साइट पीडीएफ़ फ़ॉर्मेट में बनाकर प्रकाशित की ताकि पाठकों को फ़ॉन्ट की समस्या से मुक्ति मिले. परंतु इसमें भी झमेला यह था कि जब तक उपयोक्ता के कम्प्यूटर पर एक्रोबेट रीडर (या पीडीएफ़ प्रदर्शक) संस्थापित नहीं हो, वह इसे भी नहीं पढ़ पाता था. ऊपर से पीडीएफ़ फ़ाइलें बहुत बड़ी होती हैं, और इन्हें पढ़ने के लिए पहले इसे कम्प्यूटर पर डाउनलोड करना होता है. अत: इंटरनेट पर समय अधिक लगता है.
इस तरह से हिन्दी के लिए बेहतर समर्थन की मेरी खोज जारी ही रही. ऐसे ही किसी अच्छे दिन जब मैं इंटरनेट पर हिन्दी साइटों की खोज कर रहा था, तो इंटरनेट पर सैर के दौरान अचानक इंडलिनक्स से टकरा गया. उसमें यह दिया गया था कि कैसे, यूनिकोड हिन्दी फ़ॉन्ट के जरिए न सिर्फ हिन्दी फ़ॉन्ट की समस्या का समाधान हो सकता है, बल्कि हिन्दी भाषा में लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम का सपना भी साकार हो सकता है. वे स्वयंसेवी अनुवादकों की तलाश में थे. इंडलिनक्स डॉट ऑर्ग की संस्थापना व्यंकटेश (वेंकी) हरिहरण तथा प्रकाश आडवाणी द्वारा की गई थी और उसमें जी. करूणाकर को-ऑर्डिनेटर सह तकनीकी विशेषज्ञ के रूप में कार्य कर रहे थे. इंडलिनक्स कोई व्यवसायिक संस्था नहीं थी, बल्कि स्वयंसेवी व्यक्तियों के सहयोग से ओपन सोर्स माहौल में कार्य करने के लिए प्रतिबद्ध थी. मुझे लगा कि यूनिकोड हिन्दी द्वारा आज नहीं तो कल, हिन्दी फ़ॉन्ट की समस्याओं का समाधान संभव है. यूनिकोड हिन्दी को विंडोज का समर्थन भी था और बाद में गूगल में भी यूनिकोड हिन्दी समर्थन उपलब्ध हो गया. मैं तुरंत ही इंडलिनक्स में एक स्वयंसेवी सदस्य – हिन्दी अनुवादक के रूप में शामिल हो गया.
शुरूआती समस्याएँ:
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जब मैं इंडलिनक्स में स्वयंसेवी अनुवादक के रूप में शामिल हुआ तो उस वक्त लिनक्स में सिर्फ ग्नोम डेस्कटॉप पर यूनिकोड हिन्दी समर्थन उपलब्ध था. लगभग 4-5हजार वाक्यांशों का अनुवाद मुख्यत: भोपाल के अनुराग सीठा तथा स्वयं जी. करूणाकर द्वारा किया गया था, जो उस वक्त तकनीकी समस्याओं, यथा उचित फ़ॉन्ट रेंडरिंग इत्यादि से भी जूझ रहे थे. हमें कुल 20 हजार वाक्याँशों का अनुवाद करना था, और कम से कम उसका 80 प्रतिशत अनुवाद तो आवश्यक था ही ताकि हिन्दी भाषा का समर्थन ग्नोम लिनक्स पर हासिल हो सके. उन दिनों मैं म.प्र.विद्युत मण्डल में अभियंता के रूप में कार्यरत था. कार्य और घर परिवार के बाद बचे खाली समय में मैं अनुवाद का कार्य करता और इस प्रकार प्रत्येक माह लगभग एक हजार वाक्याँशों का अनुवाद कर रहा था. उस समय तक मैं हिन्दी में कृतिदेव फ़ॉन्ट का अभ्यस्त हो चुका था, और यूनिकोड हिन्दी फ़ॉन्ट का इनस्क्रिप्ट कुंजी पट, कृतिदेव के कुंजी पट से बिलकुल अलग था. उस वक्त हिन्दी कुंजीपट को मैप कर बदलने के औजार भी नहीं थे. अत: यूनिकोड में हिन्दी अनुवादों के लिए मुझे एक नए हिन्दी कुंजीपट – इनस्क्रिप्ट को शून्य से सीखना पड़ा, जो कि कृतिदेव से पूरी तरह भिन्न था, और जिसे मैं इस्तेमाल करता था. छ: महीने तो मुझे अपने दिमाग से कृतिदेव हिन्दी को निकालने में लगे और लगभग इतना ही समय इनस्क्रिप्ट हिन्दी में महारत हासिल करने में लग गए.
शुरूआती चरणों में हमारे पास कोई हिन्दी आईटी टर्मिनलॉजी नहीं थी. ऑन-लाइन / पीसी आधारित शब्दकोश भी नहीं थे, जिसके कारण हमारा कार्य अधिक उबाऊ, थका देने वाला हुआ करता था. अनुवादों में संगति की समस्याएँ थीं. उदाहरण के लिए, अंग्रेज़ी के Save शब्द के लिए संचित करें, सुरक्षित करें, बचाएँ, सहेजें इत्यादि का उपयोग अलग-अलग अनुवादकों ने अपने हिसाब से कर रखे थे. फ़ाइल के लिए फाईल, सूचिका, संचिका और कहीं कहीं रेती का उपयोग किया गया था. इस दौरान हिन्दी भाषा के प्रति लगाव रखने वाले लोग इंडलिनक्स में बड़े उत्साह से स्वयंसेवी अनुवादकों के रूप में आते, दर्जन दो दर्जन वाक्यों-वाक्याँशों का अनुवाद करते, अपने किए गए कार्य का हल्ला मचाते और जब उन्हें पता चलता कि अनुवाद - असीमित, उबाऊ, थकाऊ, ग्लैमरविहीन, मुद्राहीन, थैंकलेस कार्य है, तो वे उसी तेज़ी से ग़ायब हो जाते जिस तेज़ी और उत्साह से वे आते थे. कुल मिलाकर हिन्दी ऑपरेटिंग सिस्टम का सपना साकार करने के लिए मेरे अलावा जी. करूणाकर ही लगातार और निष्ठापूर्वक कार्य कर रहे थे. हमारे हाथों में मात्र कुछ हजार वाक्यांशों के अनुवाद थे, जिस वजह से हम किसी को हिन्दी में ऑपरेटिंग सिस्टम कार्य करता हुआ नहीं दिखा सकते थे. फिर, जो माल हमारे पास था, वह बहुत ही कच्चा था, निहायत असुंदर था और काम के लायक नहीं था. इंडलिनक्स कछुए की रफ़्तार से चल रहा था, सिर्फ एक व्यक्ति- जी. करुणाकर के समर्पित कार्यों से जो तकनीकी पहलुओं को तो देख ही रहे थे, मेरे जैसे स्वयंसेवी अनुवादकों को (हिन्दी के इतर अन्य भारतीय भाषाओं के भी) अनुवाद कार्य के लिए आवश्यक तकनीक सिखाने-पढ़ाने का कार्य भी करते थे और इस बीच समय मिलने पर अनुवाद कार्य भी करते थे.
अंतत: पहिया घूम ही गया:
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सन् 2003 में इंडलिनक्स की गतिविधियों में कुछ तेजी आई. इसी वर्ष मैंने नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति प्रमुखत: अपनी अस्वस्थता की वजह से ली और बच्चों को घर पर कम्प्यूटर पढ़ाने लगा. मैंने अनुवाद का मासिक दर लगभग 2000 वाक्याँश कर दिया था. अंतत: हमारे पास ग्नोम 2.2/2.4 के 60-70% वाक्यांश अनूदित हो चुके थे. करूणाकर ने फरवरी 03 में लिनक्स का प्रथम हिन्दी संस्थापक इंडलिनक्स संस्करण मिलन 0.37 जारी कर दिया था. इस संस्करण की लोगों में अच्छी प्रतिक्रिया रही. लोगों ने इसे अपने मौजूदा अंग्रेजी लिनक्स के ऊपर संस्थापित कर पहली मर्तबा हिन्दी में ऑपरेटिंग सिस्टम के माहौल को देखा. इंडलिनक्स के प्रयासों की हर तरफ सराहना तो हो ही रही थी, अब लोगों ने इसकी तरफ ध्यान देना भी शुरू किया. इस दौरान, सराय के रविकान्त ने एक महत्वपूर्ण योगदान हिन्दी लिनक्स को दिया. उन्होंने सराय, दिल्ली में एक हिन्दी लिनक्स वर्कशॉप का आयोजन किया जिसमें साहित्य, संस्कृति और मीडिया कर्मी सभी ने मिल बैठ कर हिन्दी अनुवाद में अशुद्धियों को दूर करने का गंभीर प्रयास किया, जिसके नतीजे बहुत ही अच्छे रहे. बाद में सराय से ही हिन्दी अनुवादों के लिए साठ हजार रुपयों की एक परियोजना भी स्वीकृत की गई जिसके फलस्वरूप मैं सारा समय अनुवाद कार्य में जुट गया.
रविकान्त, सराय की पहल के नतीजे तेज़ी से आने लगे. दिसम्बर 03 आते आते केडीई 3.2 में पूर्ण हिन्दी समर्थन प्राप्त हो चुका था अत: मैंने उसका अनुवाद हाथ में लिया. अप्रैल आते आते केडीई 3.2 के जीयूआई शाखाओं का 90+% अनुवाद कार्य मैंने पूरा कर लिया था. इस अनुवाद को चूंकि सराय द्वारा प्रायोजित किया गया था, अत: रविकान्त की पहल पर इसकी समीक्षा वर्कशॉप फिर से आयोजित की गई. इस वर्कशॉप में पहले से अधिक लोग शामिल हुए और सबने वास्तविक कार्य माहौल में हिन्दी अनुवादों को देखा और सुधार के सुझाव दिए. इसके नतीज़े और भी ज्यादा अच्छे रहे. अनुवाद के 50 हजार वाक्याँश तथा समीक्षा उपरांत 20 हजार वाक्यांशों के सुधार कार्य के उपरांत केडीई डेस्कटॉप इतना अच्छा लगने लगा कि बहुतों ने अपने कम्प्यूटर का अंग्रेजी माहौल हटाकर हिन्दी में कर लिए जिसमें होमी भाभा साइंस सेंटर मुम्बई के डॉ. नागार्जुन भी शामिल हैं. इसकी प्रशंसा पूर्वक घोषणा उन्होंने भारतीय भाषा सम्मेलन में मुम्बई में की थी.
एक बार फिर, सराय ने एक अतिरिक्त परियोजना स्वीकृत की जिसके तहत केडीई 3.3/3.4 के हेड शाखाओं के कुल 1.1 लाख वाक्यांशों के 90% हिन्दी अनुवाद का कार्य मेरे द्वारा पूरा किया गया. इस बीच एक्सएफ़सीई 4.2, गेम, डेबियन संस्थापक, पीसीक्वेस्ट 2005 संस्थापक इत्यादि के अनुवाद कार्यों का कार्य भी किया गया.
नतीजतन, अब हमारे पास रेडहेट फेदोरा तथा एन्टरप्राइज़ संस्करण, मेनड्रेक, डेबियन, पीसीक्वेस्ट लिनक्स 2005 इत्यादि प्राय: सभी लिनक्स वितरणों में हिन्दी पूर्ण समर्थित है. इंडलिनक्स का बहुभाषी, रंगोली जीवंत सीडी भी जारी किया जा चुका है जिसमें हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं के वातावरण में लिनक्स ऑपरेटिंग सिस्टम है. लिनक्स के आकाश पर हिन्दी अब दमक रहा है.
अंतत: अब मैं बिना किसी फ़ॉन्ट समस्या के, विभिन्न अनुप्रयोगों में हिन्दी में तो काम कर ही सकता हूँ, मेरे हिन्दी के कार्य विश्व के किसी भी कोने में इंटरनेट पर यूनिकोड सक्षम ब्राउजर द्वारा देखे जा सकते हैं, तथा यूनिकोड सक्षम अनुप्रयोग द्वारा उपयोग में लिए जा सकते हैं. अब मेरा यूनिकोड हिन्दी आधारित व्यक्तिगत ब्लॉग (http://www.hindini.com/ravi ) तो चल ही रहा है, यूनिकोड हिन्दी आधारित सैकड़ों अन्य हिन्दी साइटें भी अस्तित्व में आई हैं. धन्यवाद यूनिकोड, और धन्यवाद इंडलिनक्स.
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अशुभ विवाह…
अक्षय तृतीया (आज है) पर पूरे भारत भर में लाखों की संख्या में बाल विवाह होते हैं. आप देख सकते हैं कि शाजापुर जिले में जहाँ देश भर में सबसे ज्यादा बाल विवाह होते हैं, वहाँ कुल विवाह में से बाल विवाह के प्रतिशत का हिस्सा अस्सी प्रतिशत से अधिक है. सरकार ने इसे रोकने के लिए क़ानून भी बनाए हैं, और दंड का प्रावधान भी है. परंतु यह देखा गया है कि इन मामलों में आज तक किसी को कोई सज़ा नहीं हुई. यहाँ तक कि खुले आम विधायक, सांसद और मंत्री गण ऐसे आयोजनों में खुले आम शिरकत करते फिरते हैं.
दरअसल इसे रोकने के लिए कोई क़ानून काम नहीं करेगा. इसके लिए ज़रूरत है हमें शिक्षित होने की. हमारे अपने अज्ञान और अंध विश्वास के चोले को निकाल फेंकने की. और, यह बात दूर दूर तक दिखाई नहीं देती.
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व्यंज़ल
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वो तो नासमझ हैं जो गड्ढों को चल दिए
आप क्यों उनकी उँगली पकड़ के चल दिए
क़दम अभी ठीक से संभले नहीं हैं ज़मीं पर
और कमाल है कि वो घर बसाने चल दिए
पता न था कि रास्ता खुद को बनाना है
वो मुझको सब्ज़ बाग दिखा के चल दिए
कोई मुझे उठा के ले जाएगा कंधों पर
मैं सोचता बैठा रहा और सब चल दिए
क्या अपनी अज्ञानता का भान है रवि
फिर किसलिए सबको सिखाने चल दिए
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आख़िर किसे चाहिए सरकार?
जब हमारी सरकारें इस तरह काम करती हैं-
या फिर इस तरह:
तो फिर किसे चाहिए कोई सरकार?
आपको चाहिए कोई सरकार? मुझे तो नहीं चाहिए ऐसी सरकारें.
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आख़िर किसे चाहिए सरकार? भाग 2
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बिहार की जनता ने यह दिखा दिया था कि उसे किसी क़िस्म की कोई सरकार नहीं चाहिए. और ऐसी सरकारें तो कतई नहीं जो जातिवाद, धर्मवाद के नाम पर आम जनता को बांटने का घृणित प्रयास करती हैं. उन्हें ऐसी सरकारें भी नहीं चाहिए जिनमें शामिल लोग जनता के विकास के बजाए अपना विकास करने में लगे रहते हैं. बावजूद इसके एक लूली लंगड़ी सरकार बनाने की जोड़-तोड़ जारी रही और अंततः बिहार विधानसभा, जो अभी गठित भी नहीं हुई थी, उसे भंग कर दिया गया.
अगर आने वाले छः महीनों में फिर से चुनाव होते भी हैं तो स्थिति में क्या कोई परिवर्तन होने वाला है? शायद नहीं. जनता एक बार फिर वहां किसी भी तरह के सरकार को फिर से, सिरे से नकारेगी. आख़िर किसे चाहिए ऐसी सरकारें?
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व्यंज़ल
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लूली लंगड़ी की दरकार किसे है
चाहिए ऐसी सरकार किसे है
काम नहीं हैं मुआफ़ी के क़ाबिल
फिर मिलेगी ये हरबार किसे है
जंगलों को जलाए हैं जिन्होंने
उनमें चाहिए घरबार किसे है
भीड़ तो साथ रखते हैं खरीद
अब आवश्यक दरबार किसे है
बन गया है ज़हीन रवि भी
निशाना कहीं परहार किसे है
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फ़ाइलों का अपहरण
जेडडीनेट.कॉम ने ख़बर दी है कि माइक्रोसॉफ़्ट के इंटरनेट एक्सप्लोरर वेब ब्राउज़र की ज्ञात सुरक्षा खामियों के चलते ऑनलाइन अपहर्ता आपकी फ़ाइलों का अपहरण कर सकते हैं और आपसे फिरौती वसूल कर सकते हैं:
http://ct.zdnet.com.com/clicks?c=191786-16960161&brand=zdnet&ds=5
कसम से, ये अपहर्ता अगर मेरी प्यारी ग़ज़लों और व्यंज़लों की फ़ाइलों का अपहरण कर लें तो मुझे तो हर हाल में फिरौती देकर उन्हें छुड़ानी होगी.
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10 वीँ अनुगूंज: एक पाती चिड़िया के एक जोड़े के नाम
प्रिय चूंचूं और चींचीं,
पता नहीं इस वक्त तुम दोनों कहाँ उड़ रहे होगे, जिंदगी की किस जद्दोजहद से जूझ रहे होगे. परंतु तुम दोनों ने मुझे जीवन का वह गुर सिखाया है जो किसी को भी किसी किताब में, किसी पाठशाला में और कहीं अन्यत्र नहीं मिलेगा. इस चिट्ठी के जरिए मैं तुम दोनों को धन्यवाद देना चाहता हूँ, तुम्हारा आभार प्रकट करना चाहता हूँ और कृतज्ञता व्यक्त करना चाहता हूँ कि जिंदगी के कुछ अनजाने-अनछुए पहलुओं को जानने समझने में तुमने मेरी बख़ूबी मदद की है.
मुझे याद आ रही है बीते हुए साल की जब तुम दोनों ने घनघोर मेहनत की थी. जब तुमने मिलकर तिनका-तिनका बटोरा था और मेरे अँगने में एक छोटा सा घोंसला बनाया था. शहर के कंकरीट के जंगल में प्राकृतिक तिनके तुम्हें कुछ ज्यादा नहीं मिले थे तो तुमने प्लास्टिक के रेशे, पॉलिथीन की पन्नियाँ और काग़ज़ के टुकड़ों की सहायता से अपने घोंसले का निर्माण किया था. तुम्हें वृक्ष की मजबूत टहनी नहीं मिली थी तो अपने घोंसले को तुमने कंकरीट की सीढ़ियों के नीचे से जा रहे तार के सहारे मजबूरी में बनाया था. तुम लोगों ने सिर्फ चोंच की सहायता से ऐसा प्यारा, सुंदर और उपयोगी घोंसला बनाया था कि मैं सोचता हूँ कि अगर तुम्हारे पास हमारी तरह सहूलियतें होती तो क्या कमाल करते. तुम्हारा घोंसला मजबूत तो था ही, अंदर से बिलकुल चिकना, साफ सुथरा-मलमल जैसा मुलायम था. तुमने उसका प्रवेश द्वार अलौकिक रूप से पूरी तरह से गोलाकार बनाया था, और सुरक्षा के लिहाज से परिपूर्ण था. घोंसले के मुहाने पर तुमने छतरी जैसा कुछ निर्माण भी किया था जिससे कि पानी और धूल कचरे से बच्चों को सुरक्षा मिल सके.
मैं भूला नहीं हूँ जब चींची ने बादामी रंग के चार छोटे-छोटे अंडे घोंसले में दिए थे तो किस तरह बारी बारी से तुम दोनों अंडों को सेते थे. अपने चोंच घोंसले से बाहर निकाल कर घंटों उसी मुद्रा में बैठे रहते थे. फिर जब उन चार अंडों में से चार छोटे छोटे, तुम्हारे बच्चे बाहर निकले तो तुम दोनों उसी मेहनत से, दूर-दूर से दाना-दाना ढूंढ कर लाते, अपने बच्चों के भूख के कारण फाड़े गए गुलाबी चोंच में भरते. और अपने हिस्से का दाना भी उन्हें चुगाते.
मुझे याद है जब तुमने घोंसले बनाने शुरू किए थे तो तुम दोनों कितने प्यारे और मोटे तगड़े थे. चींची, तुम्हारा पंख कितना चमकीला भूरा था और चूंचू, काले होने के बावजूद तुम्हारे पंखों से, चमकीली धूप में सतरंगी छटा बिखरती थी. घोंसला बनाने की मेहनत से और बच्चों को अपने हिस्से का खाना देने की वजह से तुम दोनों ही अपने उस मूल आकार के आधे हो गए थे और पतले हो गए थे. मेहनत से तुम्हारे पंख मटमैले हो गए थे. कांक्रीट के जंगल में तुम्हें कीट-पतंगे और दाना-तिनका मिलना कितना मुहाल होता था. तुम दूर-दूर से एक-एक दाना ढूंढ-ढूंढ कर लाते और अपने बच्चों को खिलाते और इस तरह खुद भूखे रह जाते. तुम्हें पता था कि समस्याओं के इस जमाने में तुम अपने हिस्से का भोजन देकर ही तुम अपने बच्चों को बड़ा कर सकोगे.
कुछ दिनों में ही तुम्हारे बच्चे बड़े हो गए और उनमें पंख निकल आए. अंतत: एक दिन तुमने उन्हें दाना देना बन्द कर दिया. उन्हें मजबूर कर दिया कि दाने की तलाश में वे घोंसले से बाहर निकलें. एक दिन एक-एक कर वे चारों बाहर निकले और अपने पंख फैलाकर, गिरते-पड़ते उड़ने लगे. शीघ्र ही वे अपने लिए दाना चुनने लगे. तुम्हारी मेहनत सफल रही थी. कुछ दिनों तक तुम्हारे चारों बच्चे तुम्हारे चारों ओर मंडराते रहते थे. तुम दोनों अभी भी कुछ-कुछ दाना-तिनका अपने बच्चों के मुँह में रखते थे. शीघ्र ही तुम्हारे बच्चे इस लायक हो गए कि वे अपने भरोसे दाना चुन लें. बाद में एक-एक कर चारों बच्चे तुम्हें छोड़कर चल दिए. तुम दोनों ने भी उस घोंसले को छोड़ दिया. शायद उसकी जरूरत अब तुम्हें नहीं रह गई थी. या शायद यह जगह तुम्हारे जीवन के लिए कुछ ज्यादा ही कठिन हो गई थी.
प्रिय चूंचूं और चींचीं, तुम्हारे लिए मैंने अपने आँगन में कुछ वृक्ष लगाए हैं, कुछ पौधे रोपे हैं. उन्हें मैं नित्यप्रति, प्राणपण से सींचता हूँ. उम्मीद करता हूँ कि वे शीध्र बड़े हो जाएंगे और तुम्हारे घोंसले के, तुम्हारे जीवन के आधार बनेंगे. तुम्हारे लिए, तुम्हारे बच्चों के लिए ये आशियाने बनेंगे. तो, तुम वापस मेरे अँगने में लौटोगे ना?
तुम्हारे दर्शन के इन्तज़ार में,
रवि
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पूरे देश को चाहिए आईएसओ 9002 प्रमाणपत्र
पिछले दिनों भोपाल यात्रा के दौरान हबीबगंज रेल्वे स्टेशन पर उतरना हुआ. यह भारत का एकमात्र ऐसा रेल्वे स्टेशन है जिसने आईएसओ 9002 प्रमाणपत्र हासिल किया था.
मैंने देखा कि समूचा रेल्वे स्टेशन साफ सुथरा था. जगह-जगह कचरा-पेटियाँ लगी हुई थीं. हर दस कदम पर साफ-सुथरी कचरा पेटियाँ आग्रह कर रही थीं कि मेरा उपयोग कीजिए. नतीजतन स्टेशन साफ सुथरा ही लग रहा था. यही नहीं, सफाई कर्मचारी जो अन्य स्टेशनों में नजर नहीं आते हैं, अमूमन साफ स्टेशन को और भी साफ कर रहे थे. कुछ कचरा पेटियाँ प्लास्टिक की थीं, तो कुछ स्टेनलेस स्टील की थीं. जगह-जगह फ़्लाई कैचर लगे थे, जो मक्खियों-मच्छरों की संख्या को नियंत्रित कर रहे थे. नीचे पटरियाँ भी साफ़ सुथरी थीं और उनमें कीटनाशक पाउडर छिड़का हुआ था. आमतौर पर भारतीय प्लेटफ़ॉर्म में आने वाली बदबू वहाँ नहीं आ रही थी.
प्लेटफ़ॉर्म और सीढ़ियाँ ख़ासे चौड़े थे, जिससे भीड़ बढ़ने की समस्या ही नहीं थी. अन्य स्टेशनों की तुलना में सीढ़ियाँ तीन गुना ज्यादा चौड़ी थीं. स्टेशन भवन का फ्रन्टल लुक डिज़ाइनर था, जो बढ़िया लीपा-पोता गया था. स्टेशन पर लगे एलसीडी डिस्प्ले से हर तरह की जानकारियाँ प्राप्त हो रही थीं...
आमतौर पर अन्य सभी भारतीय रेल्वे स्टेशनों में इसके विपरीत नज़ारे देखने को मिलते हैं. हर तरफ भीड़, गंदगी, बदबू का नज़ारा ही देखने को मिलता है. मुझे पिछले वर्ष की गई हरिद्वार की यात्रा याद है. हरिद्वार में प्राय गाहे बगाहे भीड़ जुटती रहती है – चाहे वह पूर्णिमा हो या कुंभ मेला. वहाँ का रेल्वे स्टेशन और सीढ़ियाँ अत्यंत तंग हैं लिहाजा हमें भीड़ के साथ साथ कचरे और बदबू का सामना करना पड़ा था. ट्रेन के इंतजार में वहाँ खड़ा रहना भी मुश्किल हो रहा था. नाक में रूमाल रखने के बावजूद मारे बदबू के उल्टियों का सेंशेसन हो रहा था. पूरे स्टेशन पर मख्खियाँ भिनभिना रहीं थीं सो अलग.
काश भारत का हर रेल्वे स्टेशन हबीबगंज की तरह होता. और काश पूरे भारत के हर नगर, हर शहर, हर गाँव के पास आईएसओ 9002 प्रमाणपत्र होता.
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टूटती हुई भाषाई सीमाएँ..
यह है नई दिल्ली से प्रकाशित एक अख़बार, हैलो ईस्ट का मास्ट हेड:
और यह है आज के अंक का दैनिक भास्कर का मास्ट हेड:
हैलो ईस्ट तो फिर भी एक छोटा सा, नॉन एक्जिस्टेंट अख़बार है. परंतु दैनिक भास्कर तो टाइम्स ऑफ इंडिया के बाद, भारत में सबसे ज्यादा बिकने वाला अख़बार है और हिन्दी भाषा के अख़बारों में सबसे ज्यादा बिकने और पढ़ा जाने वाला अख़बार है.
अगर इस अख़बार ने अपने मास्ट हेड पर हिन्दी के साथ साथ अंग्रेज़ी का प्रयोग किया है, तो इसका अर्थ साफ़ है कि विश्व में भाषाई सीमाएँ (लैंग्वेज बैरियर) टूट रही हैं. दैनिक भास्कर का यह कदम पूरा केलकुलेटेड मूव है और यह भाषाई पवित्रता के पैरोकारों की तीव्र आलोचना तो भले ही झेलेगा, परंतु उनसे कहीं अधिक-अकल्पनीय संख्या के अपने लिबरल पाठकों का एसेप्टेंस भी प्राप्त करेगा.
मैंने तो अपनी स्वीकृति की मुहर लगा दी है.
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सारा देश आरक्षित !
अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में मुसलिम विद्यार्थियों के लिए 50 प्रतिशत सीटें आरक्षित किए जाने पर तमाम बुद्धिजीवियों को तमाम तकलीफ़ें हुईं. छुद्र राजनीति से प्रेरित इस कदम से अपना भारत देश और भी गर्त में जाएगा (पर इसकी चिंता किसे है? अभी तो कुछ वोट पक्के हुए ना!). इस मसले पर पंजाब केसरी के संपादक अश्विनी कुमार अपने विशेष संपादकीय में लिखते हैं: (संपादकीय के कुछ अंश)
आरक्षण, धर्मनिरपेक्षता और हमारे मूल्य!
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- अश्विनी कुमार (प्र. संपादक, पंजाब केसरी)
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ये जो नेता दलितों के नाम पर चुनावी रोटियाँ सेंकते रहे हैं, इनकी शक्लें देखें, क्या ये किसी दृष्टिकोण से दलित उद्धारक लगते हैं? इन्हें तो सिर्फ दलितों के नाम पर वोट की राजनीति करने की समझ है.
कौन कहता है संत शिरोमणि रविदास को दलित?
कौन कह सकता है सधना को प्रताड़ित?
किसकी हिम्मत है जो माता शबरी को शोषित कहे?
कौन समझ सकता है, सैन नाई की दिव्यता?
सारा सनातन समाज इनके सामने नतमस्तक है.
इनकी आध्यात्मिकता का कोई जवाब नहीं.
लेकिन आरक्षण के कोढ़ ने अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय को 50 प्रतिशत आरक्षण करने की मंशा को प्रेरित किया.
शुक्र है एक धर्मनिरपेक्ष विश्वविद्यालय ने इसकी घोषणा की.
अगर बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय 50 प्रतिशत हिन्दू विद्यार्थियों के आरक्षण की घोषणा कहीं कर देता तो सारे धर्मनिरपेक्ष बन्दर विक्षिप्तों की तरह नाचना शुरू कर देते.
अलीगढ़ विश्वविद्यालय में कल को यह आरक्षण 100 प्रतिशत भी हो जाएगा.
हमारी ओढ़ी हुई धर्मनिरपेक्षता हमें बर्बाद कर देगी. मैं भारतवर्ष के महान संविधान विद् सर दुर्गादास बसु के उद्गार धर्मनिरपेक्षता पर अक्षरशः हिन्दी अनुवाद के रूप में दे रहा हूँ.
श्रीमती इंदिरा गांधी ने संविधान के 42 वें संशोधन की मार्फत ‘सेकुलर’ शब्द जोड़कर क्या साधना चाहा जरा उनकी जुबानी सुनें. शायद कल को माननीय उच्चतम न्यायालय भी इस शब्द को पारिभाषित कर दे.
श्री दुर्गादास बसु कहते हैं, “संक्षेप में सरकार का उद्देश्य इस संशोधन से ऐसा सिद्ध बाह्य रूप से करना था कि जो कुछ भी संविधान में पहले से है उसे और स्पष्ट किया जाए. जहाँ तक धर्मनिरपेक्षता का प्रश्न है, यह पूर्ण रूप से उसकी आत्मा अनुच्छेद 25 से अनुच्छेद 30 में निहित है. लेकिन ऐसा संशोधन करके मंशा यही है मानो बहुसंख्यक हिन्दू समाज अल्पसंख्यक मुसलिम समाज पर बड़ा कहर ढा रहा है, उनके अधिकार क्षेत्र का हनन कर रहा है, और उनके समानता के अधिकार पर अंकुश लगा रहा है. यह पूर्णतः राजनीतिक उद्देश्य से उत्प्रेरित कृत्य था जिसका एक ही उद्देश्य था कि एक सूत्र में बंटे मुसलिम समाज को वोटें कैसे प्राप्त हों? चूंकि हिन्दुओं की वोटों में एकजुटता कभी नहीं हो सकती, इसी का फायदा इंदिरा गांधी ने उठाने की कोशिश की.”
आरक्षण और ओढ़ी हुई धर्मनिरपेक्षता एक कुष्ठ और दूसरा गलित कुष्ठ रोग है.
भगवान मेरे देश की रक्षा करे.
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10 वीं अनुगूँज: चिट्ठियाँ लिखने के दिन, लगता है सचमुच लद गए.
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जब मैंने 10 वीं अनुगूँज के लिए विषय दिया था तो उत्साहित था कि लोग-बाग जी भर के चिट्टियाँ लिखेंगे, चिट्ठियाँ लिखकर अपने पुराने दिनों की यादों को ताज़ा करेंगे या भविष्य का जायजा लेंगे, और चिट्ठियाँ लिखने की अपनी भूलती-बिसरती कला को एक बार फिर याद कर उसे परिष्कृत परिमार्जित करने की कोशिश करेंगे.
परंतु, साहबान, मैं गलत था, मेरा यह खयाल गलत था. मेरा यह विचार सिरे से ख़ारिज कर दिया गया. दरअसल, दुनिया अब तेज़ी से प्रगति पथ पर है और चिट्ठी लिखने पढ़ने का माद्दा लोगों के पास से ख़त्म होता जा रहा है.
इससे लगता है कि चिट्ठियाँ लिखने के दिन सचमुच लद गए. भले ही उसे हमें अपने कम्प्यूटर पर लिखने कहा जाए, चिट्ठियाँ लिखना हम भूलते जा रहे हैं. यही वजह है कि हिन्दी के पचास से ऊपर चिट्ठाकारों में से बमुश्किल आधा दर्जन चिट्ठियाँ ही पोस्ट हुईं. एक लिहाज से यह आयोजन असफल हो गया है. और इस असफल, दसवें आयोजन की बात यहीं, इसी पंक्ति पर क्यों न ख़त्म कर दी जाए?
पर, रुकिये, एक दूसरी निगाह डालें तो दिखता है कि कुछ ऐसी अच्छी चिट्ठियाँ भी पोस्ट हुई हैं, जिनके बारे में अगर हम बात करेंगे तो पाएंगे कि उनमें से एक-एक चिट्ठी सैकड़ों चिट्ठियों के बराबर वज़न रखती हैं. और इनमें से हर एक चिट्ठी 10 वीं अनुगूँज जैसे कई-कई आयोजनों को सफल बनाने का माद्दा रखती हैं.
तो, फिर, आइए इस आयोजन के लिए मिली तमाम चिट्ठियों को एक-एक कर पढ़ें-
अनुगूँज को पहले-पहल चिट्ठी भाई प्रेम पीयूषने भेजी. चिट्ठी क्या है, पूरा का पूरा सिन्दूरिया आम है. एक-एक पंक्ति पढ़ते जाएँ, सिन्दूरिया के स्वाद का अंदाज़ा लगाते जाएँ. काश, चिट्ठी के साथ पार्सल भी मिल पाता सिन्दूरिया आमों भरा. वैसे, अनुमान लगाया जा सकता है कि उनके ऑगन का सिन्दूरिया कितना मीठा होगा. और, दीवार के पार उनकी डालों को, बच्चों के लिए आम टपकाते देख कर अगर, भाई प्रेम खुश हो रहे हैं, तो फिर निश्चित जानिये ये आम संसार के सबसे मीठे आम हैं. अन्यथा तो लोग अपने आँगन के आम को आजकल इसलिए काट देते हैं कि कहीं उनकी दीवारें क्रेक न हो जाए.
आमों का स्वाद तो काफी मीठा है ही, सुरजापूरी का स्वाद से यह स्वाद कुछ विशिष्ठ भी है । चार साल हो गये इस प्रसंग के । आसपास के पेङों में आम आये न आये इस सिन्दुरिया का आँचल खाली न जाता है । आजकल लदा पङा है यह आमों से , पिताजी भारी हो रहे डालों को बासों के दर्जन भर सहारे से टिकाये हैं । अब तो इसे काटने का याद पङते ही देह सिहर जाता है । बहुत पहले जब वह छोटा ही था, ठीक उसके जङ के पास घर की नियमित चाहरदीवारी भी खङी करनी पङी थी। मगर पंचफुटिया चाहरदीवारी से परे, आजकल सङक पर वह बच्चों के लिए कच्चे ही सही मगर वह कुछ आम टपकाता ही रहता है ।
चिट्ठियों के बीच ही, जीतू भाई ने भाई महावीर शर्मा की कविता “ससुराल से पाती आई है” का जिक्र किया. यह सारगर्भित, मजेदार, हास्य-व्यंग्य भरी कविता आपको हँसी के रोलरकोस्टर में बिठाकर यह बताती है कि प्रियतम की “ससुराल से पाती” “ससुराल की पाती” कैसे बन जाती है.
इस चिट्ठी की कुछ पंक्तियाँ मुलाहजा फ़रमाएँ:
ससुराल से पाती आई है !
पाती में बातें बहुत सी हैं, लज्जा आती है कहने में
जा कर बस लाना ही होगा, अब खैर नहीं चुप रहने में
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ससुराल के स्टेशन पर आ , मैं गाड़ी से नीचे आया
जब आंख उठा कर देखा तो टी.टी.आई सम्मुख पाया
मांगा उसने जब टिकट तो मैं बोला भैय्या मजबूरी है
कट गई जेब अब माफ करो , मुझ को एक काम ज़रूरी है
पर डाल हथकड़ी हाथों में , ससुराल की राह दिखाई है ।
ससुराल की पाती आई है ।।
उम्मीद है कि इस चिट्ठी से सीख लेकर, अब, हम, चाहे जितनी अर्जेंसी हो, चाहे जैसी भी प्यार भरी चिट्ठी तत्काल बुलावे का आए, अपनी यात्रा सोच समझ कर, जेबकतरों से सावधान रहकर करेंगे, नहीं तो हमारे ससुराल का पता बदलते देर नहीं लगेगी.
अगर आपके आँसू कुछ समय से सूख चुके हैं, भावनाओं का कोई प्रवाह कुछ समय से आपको द्रवित नहीं कर पाया है, जीवन के कठोर राहों ने आपके भीतर की भावनाओं को भी कठोर बना दिया है, या सीधे शब्दों में ही, अगर आप पिछले कुछ समय से रो नहीं पाए हैं, और रोना चाहते हैं तो इन सबका इलाज अपनी पाती में लेकर आए हैं भाई महावीर. वे खुद भी रोते हैं, और आपको भी मजबूर करते हैं कि आप उनके साथ जार-जार रोएँ. पर, जो आँसू आपकी आँखों से निकलेंगे, वे खुशी और सांत्वना के आँसू होंगे. मैं इन पंक्तियों को पढ़ कर घंटों रोया हूँ – क्या आप मेरा साथ नहीं देंगे?
‘ डैडी, जिस प्रकार आपने लन्दन के वातावरण में भी मुझे इस योग्य बना दिया कि आपके हिन्दी में लिखे पत्र पढ़ सकती हूं और समझ भी सकती हूं। उसी प्रकार मैं आपके नाती को हिन्दी भाषा सिखा रही हूं जिससे बड़ा हो कर अपने नाना जी के पत्र पढ़ सके। आपके सारे पत्र मेरे लिये अमूल्य निधि हैं।मेरी वसीयत के अनुसार आपके पत्रों का संग्रह उत्तराधिकारी को वैयक्तिक संपत्ति के रूप में मिलेगा!‘
सुन कर मेरे आंसुओं का वेग रुक ना पाया! मेरी पत्नी ने टेलीफोन का चोंगा हाथ से ले लिया…!
आइए, अब अपने आँसू पोंछें और अगली चिट्ठी पढ़ें. बहन प्रत्यक्षा चिट्ठी लिखने की कोशिश करती हैं, और वादा करती हैं कि भविष्य में वे लंबे ख़त लिखेंगी. हमें उनके ख़त का इंतजार है. परंतु अपनी अभी की कोशिश में वे हम सबको उद्वेलित करती प्रतीत होती हैं कि सोचने और लिखने की प्रक्रिया को कभी विराम न दें:
अब अगर कोई बात मुकम्मल सी न लगे तो दोष मेरा नहीं..
तो लीजिये ये पाती है उन बंधुओं के नाम जो विचरण कर रहे हैं साईबर के शून्य में………..सब दिग्गज महारथी अपने अपने क्षेत्र में
और उससे बढ कर ये लेखन की जो कला है, चुटीली और तेज़ धार,..पढकर चेहरे पर मुस्कुराह्ट कौंध जाये, उसमें महिर...
पर मेरे हाथ में ये दोधारी तलवार नहीं..शब्द कँटीले ,चुटीले नहीं.
न मैं किसी वर्जना ,विद्रोह की बात लिख सकती हूँ.......
तो प्यारे बँधुओं..मैं लिखूँ क्या....? 'मैं सकुशल हूँ..आप भी कुशल होंगे " की तर्ज़ पर पर ही कुछ लिख डालूँ...........पर आप ही कहेंगे किस बाबा आदम के जीर्ण शीर्ण पिटारी से निकाला गया जर्जर दस्तावेज़ है........
चलिये ह्टाइये....अभी तो अंतरजाल की गलियों में कोई रिप वैन विंकल की सी जिज्ञासा से टहल रही हूँ.......शब्दों के अर्थ नये सिरे से खोज़ रही हूँ...लिखना फिर से सीख रही हूँ...... हम भी धार तेज़ करने की कोशिश में लगे हैं..जब सफल होंगे तब एक खत और ज़रूर लिखेंगे..तब तक बाय
प्रत्यक्षा की दूसरी चिट्ठी आने में कुछ देरी है. तब तक के लिए किसी और की चिट्ठी पढ़ी जाए. अगली चिट्ठी भाई आशीष ने लिखी है प्रधान मंत्री के नाम. प्रधान मंत्री के नाम खुली और सार्वजनिक चिट्ठी यूँ तो उन्होंने लिखी है, परंतु ये बातें संभवत: देश का हर-एक नागरिक उनसे कहना चाहता है. फ़र्क़ यह है कि हममें इन कठोर बातों को प्रत्यक्ष कहने का साहस पैदा नहीं हो पाता. उम्मीद है कि इस चिट्ठी को भारत के कर्ता-धर्ता पढ़ेंगे और देश की भलाई के बारे में कुछ काम करेंगे. आशीष अपने पत्र में भारत के आम आदमी की दशा-दुर्दशा का जिक्र करते हुए प्रधान मंत्री से गुज़ारिश करते हैं:
आशा है आप और आपके मंत्री कुछ ऐसा करेंगे जिससे कि इस देश के आम आदमी का भला हो। आम आदमी से मेरा तात्पर्य है वो आदमी जो रोजी रोटी की तलाश में पसीना बहाता है जैसे कि हमारे किसान, मजदूर, सफाई कर्मी, रिक्शे वाले भाई, गरीब पुलिस वाले हवलदार इत्यादि जिनकी वजह से ये देश चल रहा है। ये लोग जो कि देश के प्राण हैं क्योंकि ये देख के लिये अनाज पैदा करते हैं, देश को साफ रखते हैं, आलीशान मकान और भव्य इमारतें बनाते हैं, कानून व्यवस्था बनाये रखते हैं, अधकचरे मकानों में रहते हैं, जिनके बच्चे शायद ही स्कूल जाते हैं और जो स्कूल जाते हैं वो अपने मां बाप के व्यवसाय को शायद ही अच्छी नजर से देखते हों, जिनके बच्चे कुपोषित हैं, जिनको बिजली, पानी और स्वास्थ्य सेवा की दरकार है पर मिलती नहीं है।
अगली पाती फ़ुरसतिया जी की है. पहले तो वे चिट्ठी नाम की कहानी आपको पढ़वाते हैं, और फिर इस नाचीज़ को संबोधित करते हुए अपनी पाती में समस्त चिट्ठाकारों की वो धुनाई करते हैं कि बस क्या कहें. वैसे, उनकी यह चिट्ठी चिट्ठाकारों को ही नहीं, बल्कि इससे इतर, जगत के तमाम लोगों को, अपने अंतर्मन के भीतर झांकने और अपनी वास्तविकता का अहसास करवाती फिरती है. जब भीम को अपनी ताक़त का घमंड हुआ था तो हनुमान ने सिर्फ अपनी पूंछ से भीम को यह दिखा दिया था कि कहीं भी, कोई भी पूरा ताक़तवर नहीं हो सकता, और, ताक़त जैसी बातें रिलेटिव बातें हैं. भाई फ़ुरसतिया की चिट्ठी से मेरा भी वहम फ़ुर्र हो गया और मैं धरातल पर आ गिरा. आप भी अपनी ज़मीन जाँच लें:
अच्छा, बीच -बीच में यह अहसास भी अपना नामुराद सर उठाता है कि हम कुछ खास लिखते हैं। 'समथिंग डिफरेंट' टाइप का। हम यथासंभव इस अहसास को कुचल देते हैं पर कभी-कभी ये दिल है कि मानता नहीं। तब अंतिम हथियार के रूप में मैं किसी अंग्रेजीलेखक की लिखी हुई पंक्तियां दोहराता हूँ:-
"दुनिया में आधा नुकसान उन लोगों के कारण होता है जो यह समझते हैं कि वे बहुत खास लोग हैं।"
यह लंबी चिट्ठी अपने भीतर कईयों चिट्ठियों को समाए हुए है. यह वे खुद स्वीकारते भी हैं. दरअसल, अपने इस एक ही पत्र के माध्यम से बहुतों को, अलग-अलग तरीके से, अलग-अलग पत्र लिखते हैं:
हर आदमी खास 'टेलर मेड'होता है। उससे निपटने का तरीका भी उसी के अनुरूप होता है। यह हम जितनी जल्दी जान जाते हैं उतना खुशनुमा मामलाहोता है।
बहरहाल ,अब इतना लंबा पत्र लिख गया कि कुछ और समझ नहीं समझ आ रहा है। थोड़ा कहा ,बहुत समझना। यह पत्र मैंने रविरतलामी के लिये लिखना शुरु किया था । पता नहीं कैसे दूसरे साथी अनायास आते चले गये। अपने एक दोस्त से बहुत
समय बाद मिलने पर मैंने उससे कहा कि मैं तुमको अक्सर याद करता हूँ। उसने जवाब दिया -याद करते हो तो कोई अहसान तो नहीं करते। याद करना तुम्हारी मजबूरी है.
फ़ुरसतिया जी का पत्र इस शेर के बग़ैर अधूरा ही रहता, जो मुझे ख़ासा पसंद आया:
धोबी के साथ गदहे भी चल दिये मटककर,
धोबिन बिचारी रोती,पत्थर पे सर पटककर।
चलिए, बहुत पटक लिए सर, अब आगे की चिट्ठी पढ़ते हैं. जीतू भाई को अपनी बीवी के लिए ड्राइवर, कुली, कैशियर बनते बनते उन्हें अपना ब्लॉग लिखने को समय नहीं मिल पा रहा, तो फिर वे चिट्ठी क्या ख़ाक लिखते. फिर भी, वे इतना तो उपकार कर गए कि अपनी प्रेम कहानी में इस्तेमाल की गई आख़िरी चिट्ठी हम सबके पढ़ने के लिए पोस्ट कर गए. इस वादे के साथ कि शिब्बू के ख़त के किस्से को वे शीघ्र ही बताएँगे. हमें उसका इंतजार है, पर तब तक उनकी आख़िरी, कवितामयी प्रेमपाती को क्यों न पढ़ लें:
तेरी खुशबू मे बसे खत मै जलाता कैसे
प्यार मे डूबे हुए खत मै जलाता कैसे
तेरे हाथों के लिखे ख़त मै जलाता कैसे
जिनको दुनिया की निगाहों से छुपाये रखा
जिनको एक उम्र कलेजे से लगाये रखा
दीन जिनको जिन्हे ईमान बनाये रखा
तेरी खुशबू मे बसे ख़त मै जलाता कैसे…..
इस बीच अनुगूँज को अगली चिट्ठी मिली भाई अतुल की. पढ़ने पर लगा कि क्या यह चिट्ठी है? पर, फिर लगा कि भाई, अगर अगले ने चिट्ठी भेजी है तो यह चिट्ठी ही है. और क्या मज़ेदार चिट्ठी है. चिट्ठी पढ़कर आपको हँसते-हँसते अगर पेचिश न हो जाए तो आप मेरा नाम बदल देना. अतुल भाई, आपकी ऐसी चिट्ठियों का इंतजार रहेगा. इधर लोग-बाग़ हँसना भूल गए हैं ना, इसीलिए. चिट्ठी को दुबारा पढ़कर थोड़ा और हँसा जाए:
हम बारातियो के साथ वह भी बाराती बनके बाहर आ गया था| वह बेवकूफ कैदी बाहर आकर शादी के पँडाल में जलेबी जीमने लगा और उसे हलवाई की ड्यूटी कर रहे दरोगा जी ने ताड़ लिया| वहाँ जेल में कैदियो के परेड शुरू होने पर एक कैदी कम निकलने से चिहाड़ मच गई थी| थोड़ी ही देर में स्थिति नियंत्रण में आ गयी| हलाँकि इस हाई वोल्टेज ड्रामे को देखकर कुछ बारातियो को पेचिश लग गई| अब वह सब तो फारिग होने फूट लिए उधर चौहान साहब देर होने की वजह से लाल पीले होने लगे|
अब, अगर आपकी हँसी रुक गई हो तो अगला ख़त पढें? पर इस बार इस बात की क्या गारंटी है कि अगला पत्र पढ़कर आप न हँसें? भाई तरूण पत्र तो लिखते हैं प्रीटी वूमन को परंतु वे हमारे-अपने जैसे स्मार्ट लोगों की स्मार्ट सोच का फ़ालूदा बनाते दिखाई देते हैं. इस पत्र में हास्य है, व्यंग्य है, अपनी तथाकथित स्मार्ट सोच पर करारी चोट भी है. अब आप हँसें, या रोएँ, फ़ैसला आपका है:
यहाँ एक बात मेरी समझ मे नही आयी कि हम सब लोग तो यहाँ ‘विदेशी’ हैं फिर क्यों एक दूसरे को देशी कहते हैं। ऐसे ही दिन गुजरने लगे। एक दिन फिर मै न्यूयार्क गया, इंडिया मे अपने शहर मे छोटी-छोटी गलियां हुआ करती थीं यहाँ ‘बिग-ग’लियां थीं। टाईम स्कवायर मे रात के वक्त ऐसा लगा जैसे सैकड़ों ‘चिराग २०००’ वोल्ट के जल रहे हों। वक्त गुजरने के साथ-साथ मेरा स्टेटस भी एन आर आइ का हो गया लेकिन मै अपने को ‘इ-एनआरआइ’ कहलाना पंसद करता था। एन आर आइ होते ही मै अमेरिका की बड़ी-बड़ी बातें करने लगा और इंडिया मुझे एक बेकार सा देश लगने लगा।
ये क्या? अगला पत्र मेरा अपना ही लिखा हुआ? इस पत्र की नुक्ता-चीनी करना अशोभनीय और अवांछित होगा, इसीलिए, चलिए, इसे बिना किसी टिप्पणी के, यूँ ही पढ़ लेते हैं:
मुझे याद आ रही है बीते हुए साल की जब तुम दोनों ने घनघोर मेहनत की थी. जब तुमने मिलकर तिनका-तिनका बटोरा था और मेरे अँगने में एक छोटा सा घोंसला बनाया था. शहर के कंकरीट के जंगल में प्राकृतिक तिनके तुम्हें कुछ ज्यादा नहीं मिले थे तो तुमने प्लास्टिक के रेशे, पॉलिथीन की पन्नियाँ और काग़ज़ के टुकड़ों की सहायता से अपने घोंसले का निर्माण किया था. तुम्हें वृक्ष की मजबूत टहनी नहीं मिली थी तो अपने घोंसले को तुमने कंकरीट की सीढ़ियों के नीचे से जा रहे तार के सहारे मजबूरी में बनाया था. तुम लोगों ने सिर्फ चोंच की सहायता से ऐसा प्यारा, सुंदर और उपयोगी घोंसला बनाया था कि मैं सोचता हूँ कि अगर तुम्हारे पास हमारी तरह सहूलियतें होती तो क्या कमाल करते.
अब मेरे हाथ में यह आख़िरी पत्र बचा है. भाई रमण का यह सारगर्भित, सोचने को मजबूर करता पत्र. यह एक प्रकार से पाती का मरसिया है, जो वे अपने पत्र के माध्यम से पढ़ रहे हैं. हम सब बड़े दुःख के साथ चिट्ठी को मरता हुआ देख रहे हैं. आइए, हम भी भाई रमण की इन पंक्तियों के साथ चिट्ठी की मौत का मातम मनाएँ:
मेरी प्यारी पाती,
मुझे बहुत दुख है कि तुम अब इस दुनिया में नहीं रही। खैर जहाँ भी हो, सुखी रहो। इस दुनिया में फिर आने की तो उम्मीद छोड़ दो क्योंकि इस दुनिया में तुम्हारा स्थान ईमेल ने ले लिया है। सालों हो गए तुम्हें गुज़रे हुए। वास्तव में तुम्हारी याद तो बहुत आती है। तुम्हारे रहते ही तुम्हारी पूछ बहुत कम हो गई थी, जैसा हर किसी के साथ बुढ़ापे में होता है। लोग खबर एक दूसरे तक पहुँचाने के लिए पहले ही टेलीफोन का इस्तेमाल करने लग गए थे।
ॐ शांति शांतिः अथ श्री 10 वीं अनुगूँज आयोजनम सम्पन्नम् भवतः
सभी चिट्ठाकार मित्रों को साधुवाद.
पुनश्च: अगर किसी मित्र की चिट्ठी भूलवश पढ़ने-पढ़ाने में छूट गई हो, तो कृपया
मुझे क्षमा करते हुए तत्काल सूचित करें ताकि उसे भी पढ़-पढ़ा लिया जाए.
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