**** कुंभकोणम की हृदय विदारक घटना की आग अभी बुझ भी नहीं पाई थी कि मुम्बई के साकीनाका बीएमसी स्कूल में बच्चों के भोजन में कीड़ों के पाए जा...
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कुंभकोणम की हृदय विदारक घटना की आग अभी बुझ भी नहीं पाई थी कि मुम्बई के साकीनाका बीएमसी स्कूल में बच्चों के भोजन में कीड़ों के पाए जाने की घटना सनडे टाइम्स ऑफ़ इन्डिया ने अपने १८ ज़ुलाई के अंक में दी है. ऊपर से भोजन का परीक्षण किए जाने पर यह पाया गया कि वह विषाक्त है, और खाने योग्य नहीं है. यह तो भला हुआ कि उस भोजन के कारण कोई हादसा नहीं हुआ, वरना इस योजना में एक और धब्बा लग जाता.
शायद इन्हीं बातों के मद्देनज़र महाराष्ट्र में अब दोपहर के भोजन के बजाए मीठा दूध देने की योजना घोषित की गई है. दोपहर के भोजन की योजना भी ग़लत नहीं थी, परन्तु उसे अत्यंत अप्रायोगिक तरीके से लागू किया गया है जिसके कारण ही समस्याएँ आ रही हैं. अब देखना यह होगा कि दूध सिंथेटिक तो नहीं दिया जा रहा है (यू.पी. के कई शहरों में सिंथेटिक दूध धड़ल्ले से बिक रहा है, जिसमें यूरिया और डिटरज़ेंट जैसे ख़तरनाक रासायनिक पदार्थ होते हैं) या फ़िर नन्हें मुन्नों के दूध की मिठास शक्कर की है या सेकरीन की? अगर ऐसी योजनाओं को सफ़ल और प्रायोगिक बनाना है, तो अमूल जैसी बड़ी, व्यावसायिक सहकारी समितियों को पूर्ण एकाउन्टीबिलिटी सहित ये ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए, और शिक्षकों को उनके मूल कार्य - शिक्षण की जवाबदारी ही दी जानी चाहिए, न कि भोजन तैयार करने-परोसने की.
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आंध्र प्रदेश की सरकार द्वारा जारी एक अध्यादेश के तहत धर्म के आधार पर लागू आरक्षण को उच्च न्यायालय ने हाल-फ़िलहाल रोक लगा दी है. दशक पूर्व मंडल सिफ़ारिशें लागू कर वीपी सिंह आरक्षण मसले का जो राजनीतिकरण किया वह तेज़ी से ज़ारी है. पासवान जैसे लोग निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की ज़ोरदार वकालतें करते रहते हैं. भारत की आज़ादी के ५० वर्ष बाद स्थिति यह है कि आरक्षण का आंकड़ा ५० प्रतिशत को पार कर गया. आधी सदी बीत जाने के बाद भी अगर सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव नहीं आया, तो इसके पीछे अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने और अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए बनीं ये योजनाएँ ही हैं जो कभी भी देश का भला नहीं कर पाएँगीं. बाला साहेब ठाकरे ने अपने दल के ऊर्जा मंत्री अनंत गीते, जो कि देश के लिए प्रतिबद्ध होकर ऊर्जा की योजनाएँ बना रहे थे, कहा भी था- देश के लिए नहीं, पार्टी के लिए योजनाएँ बनाओ. कल को पार्टी नहीं रही तो तुम कहाँ रहोगे. इन्हीं भिन्नताओं के चलते अंततः प्रतिबद्ध गीते को मंत्री पद से स्तीफ़ा देना पड़ा था. ज़ाहिर है, मसला आरक्षण का हो या कोई और, अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए लिए गए ये फ़ैसले देश का भला करने के बजाए देश का खासा नुक़सान तो करेंगे ही, समाज में एकीकरण के बजाए उसे और भी ज्यादा बाँटने और उसमें दूरियाँ भरने का काम करेंगे.
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ग़ज़ल
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मेरा देश रिज़र्व हो गया
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देखते देखते मेरा देश रिज़र्व हो गया
जाना था फ़ारवर्ड पर रिज़र्व हो गया
देखे थे मैंने भी सपने हरे पीले नीले
टूट कर सब धूसर में रिज़र्व हो गया
नाउम्मीदी छोड़ने की किससे कहेंगे
अब तो सारा तंत्र ही रिज़र्व हो गया
वो क़ाफ़िर विधर्मी लंगोटिया था मेरा
अध्यादेश आते ही वो रिज़र्व हो गया
चल चलें किसी और ज़माने में रवि
जीने का हौसला यहाँ रिज़र्व हो गया
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कुंभकोणम की हृदय विदारक घटना की आग अभी बुझ भी नहीं पाई थी कि मुम्बई के साकीनाका बीएमसी स्कूल में बच्चों के भोजन में कीड़ों के पाए जाने की घटना सनडे टाइम्स ऑफ़ इन्डिया ने अपने १८ ज़ुलाई के अंक में दी है. ऊपर से भोजन का परीक्षण किए जाने पर यह पाया गया कि वह विषाक्त है, और खाने योग्य नहीं है. यह तो भला हुआ कि उस भोजन के कारण कोई हादसा नहीं हुआ, वरना इस योजना में एक और धब्बा लग जाता.
शायद इन्हीं बातों के मद्देनज़र महाराष्ट्र में अब दोपहर के भोजन के बजाए मीठा दूध देने की योजना घोषित की गई है. दोपहर के भोजन की योजना भी ग़लत नहीं थी, परन्तु उसे अत्यंत अप्रायोगिक तरीके से लागू किया गया है जिसके कारण ही समस्याएँ आ रही हैं. अब देखना यह होगा कि दूध सिंथेटिक तो नहीं दिया जा रहा है (यू.पी. के कई शहरों में सिंथेटिक दूध धड़ल्ले से बिक रहा है, जिसमें यूरिया और डिटरज़ेंट जैसे ख़तरनाक रासायनिक पदार्थ होते हैं) या फ़िर नन्हें मुन्नों के दूध की मिठास शक्कर की है या सेकरीन की? अगर ऐसी योजनाओं को सफ़ल और प्रायोगिक बनाना है, तो अमूल जैसी बड़ी, व्यावसायिक सहकारी समितियों को पूर्ण एकाउन्टीबिलिटी सहित ये ज़िम्मेदारी दी जानी चाहिए, और शिक्षकों को उनके मूल कार्य - शिक्षण की जवाबदारी ही दी जानी चाहिए, न कि भोजन तैयार करने-परोसने की.
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आंध्र प्रदेश की सरकार द्वारा जारी एक अध्यादेश के तहत धर्म के आधार पर लागू आरक्षण को उच्च न्यायालय ने हाल-फ़िलहाल रोक लगा दी है. दशक पूर्व मंडल सिफ़ारिशें लागू कर वीपी सिंह आरक्षण मसले का जो राजनीतिकरण किया वह तेज़ी से ज़ारी है. पासवान जैसे लोग निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की ज़ोरदार वकालतें करते रहते हैं. भारत की आज़ादी के ५० वर्ष बाद स्थिति यह है कि आरक्षण का आंकड़ा ५० प्रतिशत को पार कर गया. आधी सदी बीत जाने के बाद भी अगर सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव नहीं आया, तो इसके पीछे अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकने और अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए बनीं ये योजनाएँ ही हैं जो कभी भी देश का भला नहीं कर पाएँगीं. बाला साहेब ठाकरे ने अपने दल के ऊर्जा मंत्री अनंत गीते, जो कि देश के लिए प्रतिबद्ध होकर ऊर्जा की योजनाएँ बना रहे थे, कहा भी था- देश के लिए नहीं, पार्टी के लिए योजनाएँ बनाओ. कल को पार्टी नहीं रही तो तुम कहाँ रहोगे. इन्हीं भिन्नताओं के चलते अंततः प्रतिबद्ध गीते को मंत्री पद से स्तीफ़ा देना पड़ा था. ज़ाहिर है, मसला आरक्षण का हो या कोई और, अपने तात्कालिक राजनीतिक लाभ के लिए लिए गए ये फ़ैसले देश का भला करने के बजाए देश का खासा नुक़सान तो करेंगे ही, समाज में एकीकरण के बजाए उसे और भी ज्यादा बाँटने और उसमें दूरियाँ भरने का काम करेंगे.
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ग़ज़ल
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मेरा देश रिज़र्व हो गया
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देखते देखते मेरा देश रिज़र्व हो गया
जाना था फ़ारवर्ड पर रिज़र्व हो गया
देखे थे मैंने भी सपने हरे पीले नीले
टूट कर सब धूसर में रिज़र्व हो गया
नाउम्मीदी छोड़ने की किससे कहेंगे
अब तो सारा तंत्र ही रिज़र्व हो गया
वो क़ाफ़िर विधर्मी लंगोटिया था मेरा
अध्यादेश आते ही वो रिज़र्व हो गया
चल चलें किसी और ज़माने में रवि
जीने का हौसला यहाँ रिज़र्व हो गया
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